= करणीदानसिंह राजपूत =
संतों महापुरूषों देवी देवताओं के नाम पर बनाई गई संचालित की जा रही शिक्षण संस्थाएं अथवा कोई अन्य प्रभावी नाम रख कर चलाई जा रही शिक्षण संस्थाओं में से अनेक का संचालन देख कर तरीके देख कर कुछ साल पहले तक उनको दुकानें कहा जाता था। लेकिन आज जो स्वरूप सामने आ रहा है,उसके अनुसार तो अब दुकानें नहीं कह सकते। अब उनको लूट खसोट के अड्डे कहना उचित होगा।
प्रतिदिन बच्चों से रूपए हड़पने के नए नए तरीके अपनाए जाते हैं।
कोई भी एक दिन ऐसा नहीं बीतेगा जिसमें किसी न किसी बहाने से रूपए ना हड़पे जाऐं।
पहले अंग्रेजी माध्यम के नाम पर चलाई जाने वाली शिक्षण संस्थाओं में लूट खसोट चलाई जाती थी। लेकिन अब हिन्दी माध्यम वाली संस्थाओं में भी लूट खसोट शुरू हो चुकी है।
कुछ साल पीछे लौट कर देखें।
सबसे पहले बस्ते से लूट शुरू हुई थी। अब बस्ता कोई नहीं कहता। अब स्कूल बैग कहा जाता है। जब से स्कूल बैग कहा जाने लगा है तब से लूट की रकम भी बढ़ गई।
इसके बाद स्कूल की डे्रस के नाम पर लूट शुरू हुई।
स्कूल के परिचय पत्र के नाम पर लूट शुरू हुई।
शिक्षण संस्थाओं के संचालकों ने लगातार लूट खसोट पर अभिभावकों को चुप पाया तो उनका दुस्साहस बढ़ता चला गया। वे और जयादा लुटेरे बन गए।
पुस्तकों के नाम पर लूट शुरू हो गई। एक तरफ तो आवाज उठ रही है कि बच्चे के बस्ते का वजन कम होना चाहिए,लेकिन लुटेरों ने पुस्तकों के आकार बहुत बड़े कर दिए और उनको रंगीन कर दिया। इसके बाद भी लूट में कमी मानी तथा रंगीन से बहु रंग यानि मल्टीकलर ग्लेज पेपर कर दिया। ताकि लूट वाजिब मानली जाए।
संचालकों का पेट नहीं कुआ बनता चला गया।
अब भावनात्मक लूट चली। बच्चे दूरी तक पैदल कैसे चलें और समय पर स्कूल पहुंचें? साईकिल को आऊट ऑफ फैशन कर दिया गया। साईकिल चलाने वाला बच्चा गरीब बना दिया गया। हेय घृणा किए जाने वाला बना दिया गया। स्कूली वाहन से आओ और जाओ।
अभिभावकों से बहुत अच्छी रकम ली जाने के बाद वाहन में भेड़ बकरियों की तरह भर कर स्कूल लाना और वापस पहुंचाना। स्कूल वाहन का रंग पीला और उसमें चालक व परिचालक तथा निर्धारित संख्या में ही बच्चों को बिठाना अनिवार्य है। जब जब हादसे होते हैं तब तब मालूम पड़ता है कि चालक बिना लायसेंस वाला था। बच्चे अधिक थे। परिचालक नहीं था।
स्कूली वाहन में आग लग जाए और उसमें बाहर निकलने की हालत ही नहीं हो,तब बच्चे तो गैस या अग्रि चैम्बर में होंगे। स्कूल का पूरा प्रबंधन इस प्रकार की घटनाओं के लिए जिम्मेदार होता है। स्कूलों में प्रबंधन समिति के नाम पर मोहल्ले वालों के,जान पहचान वाले राजनैतिक व्यक्तियों के नाम लिखे जाते हैं और बैठकें नियमित नहीं होती। जिनके नाम होते हैं। उनको भी मालूम नहीं होता। उनके हस्ताक्षर तक फर्जी कर लिए जाते हैं।
स्कूल संचालक अपने बचने के लिए अपनी पत्नी या परिवार के किसी सदस्य को सत्ताधारी पार्टी में किसी न किसी पद से जोड़ देता है। ऐसी अनेक घटनाएं घोटाले सामने आते रहते हैं। लेकिन अभिभावक जागरूक हो तो स्कूल संचालक गड़बडिय़ां नहीं कर सकता,चाहे वह कितना ही प्रभावशाली हो।