इक दिन ऐसा आएगा,
गांव बोलेंगे।
खेत बोलेंगे और खलिहान बोलेंगे।
रेतीले टीलों पर कटते,
फोग बोलेंगे।
नष्ट होते खींप और सीणिये बोलेंगे ।
एक दिन ऐसा आएगा गांव बोलेंगे,
खेत बोलेंगे और खलिहान बोलेंगे।
सूखी नदियां बोलेंगी,
सूखे तलाब बोलेंगे।
शोषण के विरुद्ध,
अपने मुंह को खोलेंगे।
कुल्हाड़ी से कटते खेजड़,
कीकर बोलेंगे।
खाली कोठे देखकर,
किसान बोलेंगे।
एक दिन ऐसा आएगा,
गांव बोलेंगे।
खेत बोलेंगे,खलिहान बोलेंगे।
चारागाहों के घटाव पर,
जंतु बोलेंगे।
उजड़ते जंगलों पर,
रोते मोर बोलेंगे।
बंजड़ में मुंह मारती,
भेड़ें बोलेंगी।
दानवी हरकतों पर रोते,
मौसम बोलेंगे।
एक दिन ऐसा आएगा,
गांव बोलेंगे
खेत बोलेंगे,खलिहान बोलेंगे।
***********************यह रचना कई साल पहले 2001-2 में लिखी गई थी। शोषण अत्याचार अनेक प्रकार के होते हैं। आसपास वालों को भी मालूम नहीं हो पाता। दमन के विरूद्ध आखिर हर कोई मुंह खोलने को तैयार हो उठता है।
भेड़ कट जाती है,बोलती नहीं,मैने भेड़ को भी अत्याचार के विरूद्ध बोलने का लिखा है कि भेड़ भी अत्याचार के विरुद्ध बोल उठती है।
ऐसे में आदमी कब तक शोषण का शिकार होता रहेगा? आदमी भी बोलेगा। अत्याचार और शोषण के विकट हालत आज भी मौजूद हैं बल्कि बढ गए हैं।
यह कविता उस समय आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी।
5 जून 2020
अपडेट - 12 नवंबर 2023.
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