सोमवार, 28 सितंबर 2020

जन समस्याओं से दूर भागते बड़े लोग- सामयिक लेख - * करणीदानसिंह राजपूत *

 


बड़े नाम बड़े पद! सुख शांति संपत्ति में बड़े लोग!!  चाहे राजनेता हों चाहे विपक्ष के नेता हों,चाहे समाजसेवी कहलाते हों,अपने आसपास हो रहे भ्रष्टाचार का विरोध करने में  जनता के दुख दर्द में सहयोगी होने संघर्ष करने में साथ देने के बजाय दूर भाग रहे हैं। फिर यह बड़े लोग कैसे हुए?

जब आसपास की बात पर शहर की बात पर घरों में कोठियों में मुंह छुपा कर बैठे रहते हैं। तब इनसे देश के मुद्दों पर राज्यों के मुद्दों पर क्या आशा कर सकते हैं?
कहते हैं कि मिट्टी को पूजने से भी पत्थर को पूजने से भी उसके आगे बोलने से भी पत्थर और मिट्टी भी बोलने लग जाते हैं लेकिन बड़े लोग कहलाने वाले उच्च शिक्षित कहलाने वाले जनता की पीड़ा ऊपर जनहित की बात पर आदमी होते हुए भी पत्थर बने हुए हैं।
मुद्दा कोई एक हो कोई एक पीड़ा हो ऐसा नहीं है बल्कि अनेक मुद्दे अनेक पीड़ा सुबह से लेकर शाम तक कष्ट में लोग जिनको रात को भी पीड़ाओं में रहना पड़ता है,उन लोगों के लिए बड़े लोग जबान नहीं खोलते उनकी कलम नहीं चलती।
तो क्या वे बड़े कहलाने का हक रखते हैं?
जनता को अपना पक्ष रखने के लिए चुनाव आते हैं। उस समय विभिन्न प्रकार से जनता भ्रमित हो जाती है।
चाहै देशभक्ति के नाम पर चाहे पार्टी बाजी के नाम पर चाहे किसी और कारणों से।
चुनाव के बाद फिर दुखों के पहाड़ों के नीचे दबे हुए  समय बिताते हैं। चुने हुए लोगों चुने हुए जनप्रतिनिधियों के आगे जनता को मांग क्यों रखनी पड़े?
  वे जानते हुए भी अनजान क्यों बने रहना चाहते हैं? इसका एक बहुत बड़ा कारण है कि पीड़ित लोग उनके आगे हाथ बांधे खड़े रहते हैं हाथ जोड़े खड़े रहते हैं । उनके कोठी बंगलों पर हाजिरी देते हैं।
इस कमजोरी के कारण बड़े लोग कभी सिर नीचा करके आंखें खोल कर पीड़ितों को देखना नहीं चाहते। जब पीड़ित हाजरी भरेंगे  तो यही हालत रहेगी।
लोकतंत्र में जनता की आवाज उठाने में समाचार पत्रों पत्रकारों का बहुत बड़ा दायित्व माना जाता था लेकिन आज स्थिति बदल गई है।
जो बड़े होने का दावा करते हैं एक नंबर पर होने का दावा करते हैं उन समाचार पत्रों में जनता की आवाज जनता की पीड़ाएं जनता के मुद्दे कहीं नजर नहीं आते। असल में बड़े कहलाने वालों ने पत्रकारिता ही खत्म कर दी। बड़े अखबार वालों ने पहले छोटे अखबारों को खा लिया। छोटे अखबार खत्म हो गए और अब यह बड़े अखबार भी अपने दफ्तरों को समेट कर बड़े बिजनेसमैन बन गए। संवाददाताओं को वेतन पर नहीं अब ठेके पर रखा जाता है। ठेके पर रखे हुए संवाददाताओं के लिए नीति निर्धारित की हुई होती है कि उन्हें अखबार के लिए क्या भेजना है चैनल के लिए क्या भेजना है? उनमें जनता के मुद्दे शामिल नहीं होते। यदा-कदा पांच 10 पंक्तियों में समाचार होता है फोटो जानबूझकर गायब कर दी जाती है और चैनल में 10 सेकंड का समाचार होता है।  बस अखबार वाले और चैनल वाले दोनों अपना कर्तव्य पूर्ण कर लेते हैं। किसे पढने को खरीदें और किस चैनल को देखें? यह निर्णय करें?
सही स्थिति यह है कि जो पीड़ित लोग हैं जो संघर्षशील लोग हैं उनको बड़े लोगों की हाजिरी भरनी बंद करनी चाहिए यही एक मार्ग बचा है।००







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