गुरुवार, 26 मार्च 2015

मौत की खाने मौत के कारखाने:टीबी और सिलिकोसिस की पैदावार:



राजसमंद जिले में जिंदगी को तड़पते हजारों परिवार: खामोशी से मौतें देखता शासन प्रशासन:
40 साल तक का जीवन आगे बीमारियां न खून न मांस:बस तड़पते कंकाल:
राजनीतिक दलों और ट्रेड यूनियनों के नेता और कार्यकर्ता, एनजीओ, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता उदासीन बने हुये हैं
स्पेशल रिपोर्ट- करणीदानसिंह राजपूत



सरकारों को करोड़ों रूपए का राजस्व हर साल देने वाले और देश भर की अट्टालिकाओं व निर्माणों को सजाने संवारने वाले राजस्थान के राजसमंद जिले में मौत का कहर बरपाती एक दुनिया भी है जिसका कालापन शासन और प्रशासन देश कर भी खामोश है। राजसमंद की खानों और कारखानों में टीबी व सिलिकोसिस की ही पैदावार होती है उत्पादन होता है। इस कारण से 18 साल की उम्र में काम करने में लगा मजदूर 40 का होते होते बीमार हो जाता है। मतलब की वह सही रूप में केवल 12 साल ही मजदूरी कर पाता है तथा वह भी उसे पूरी नहीं मिल पाती। आजाद देश में यह कैसी लाचारी है कि सब कुछ जन प्रतिनिधियों के सामने हो रहा है। सरकारें कुछ भी नहीं करती मगर फिर भी उनको  आगाह कराया जाता रहा है। मौखिक भी और लिखित भी। यह प्रक्रिया कई सालों से किसी न किसी मजदूर नेता या प्रतिनिधि की मारफत चलती रही है और अभी भी चल रही है।

भारतीय मज़दूर संघ के जिलाध्यक्ष फतह सिंह राव ने राजसमंद में 24 मार्च को बताया की राजसमन्द जिले की खानों में कार्यरत सिलिकोसिस बीमारी से पीडि़त मजदूरों को अविलम्ब विशेषज्ञ सुविधायुक्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने की मांग केंद्रीय श्रम मंत्री व स्वस्थ्य मंत्री को एक ज्ञापन प्रस्तुत कर की गई!उन्होंने बताया की जिले में पत्थर खदानों, गिट्टी के क्रेशर, पत्थर पाउडर बनाने वाली फेक्टरियों में हजारो श्रमिक काम करते हैं। खनन मजदूरों को विशेष रूप से सांस सम्बंधित बीमारियां होती हैं! अर्से से खनन कर्मी खाँसी और सीने में दर्द की शिकायत से जुंझ रहे हे जिसका मुख्य कारण खानों में काम करने के दौरान सिलिका एवं अन्य अयस्कों के महीन कण फेफडों में चले जाते हैं और जाकर जम जाते हैं,जो धीरे धीरे पहले टीबी के रूप में फिर सिलिकोसिस का रूप धारण कर लेते हैं जो कि लाइलाज बीमारी है। सिलिकोसिस से ग्रसित मरीजों का पता लगाने के लिए शासन के निर्देश पर स्वास्थ्य विभाग की ओर से सर्वेक्षण कराए जाते हैं। इस दौरान खदान पर काम करने वाले मजदूरों की जांच कराई जाती है। चौंकाने वाली बात यह है कि सिलिकोसिस के नाम पर टीबी की जांच की जाती है, इस घातक रोग की जांच कराने की व्यवस्था को लेकर संसद में भी मामला उठ चुका है।  सिलिकोसिस के ग्रसित सही मरीजों की पहचान नहीं हो पाती और वे इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। 12 दिसंबर 2014 को 20 जिलो में 34 ब्लॉक सिलिकोसिस प्रभावित क्षेत्र के रूप में चिन्हित किये गये जिसमें राजसमन्द केलवा भी चिन्हित है! प्रभावित क्षेत्र की निगरानी व निरंतर चिकित्सा शिविर के आयोजन की जिम्मेदारी जिला क्षय अधिकारी द्वारा कर संभावित मरीजो को न्यूमोकोनोसिस बोर्ड में रेफर किया जाता हे सिलकोसिस बीमारी की पुष्टि न्यूमोकोनोसिस बोर्ड द्वारा की जाती है एवं प्रत्येक मरीज को ईलाज के लिये एक-एक लाख रुपये की नकद राशि एवं मृत श्रमिको के परिजनों को एक लाख रुपये नकद एवं दो लाख रुपये सावधि जमा के रूप में वितरित किये जाते हैं। लकिन आज दिन तक एक भी मरीज को चिन्हित नहीं किया न ही बोर्ड का गठन हुआ!राव ने कहा है कि अकेले राजसमन्द जिले में खान उद्योग में लगे श्रमिक औसतन 40 वर्ष की आयु के बाद खराब स्वास्थ्य के चलते पलंग पकडने को मजबूर हो जाते हैं और शेष जीवन किसी न किसी सहारे काटने को विवश होना पड़ता है। सिलिकोसिस बीमारी की जांच के लिए आवश्यक जांचें जैसे लंग बायोप्सी, कैट स्कैनिंग, फ्लोनरि फंक्शन टैस्ट आदि की सुविधा चुनिंदा केन्द्रों पर उपलब्ध होने के कारण गरीब श्रमिक वहां तक पहुंचने में असमर्थ रहता हैं और समय पर अपना इलाज नहीं करवा पाता है। नियोक्ता भी सुरक्षा एहतियात नजरअंदाज कर देते हैं। बदतर यह है कि जब कभी ऐसे मामले सामने आते हैं तो वे (कर्मचारियों के) इलाज के लिए उपयुक्त उपाय नहीं करते। जब मौतें होती हैं तो वे उपयुक्त मुआवजा भी नहीं देते। राव ने खान श्रमिकों को खनन क्षेत्रों में काम करने के लिए सुरक्षित वातावरण व  खनन संबंधित आधुनिक उपकरण उपलब्ध कराने के लिए खान मालिकों को पाबंद करने की कार्य योजना बनाए जाने व समयबद्ध स्वास्थ्य जांच के लिए पुख्ता बंदोबस्त की मांग की।


 कारखाना और खदान मजदूरों की पेशागत सुरक्षा और सेहत से सम्बंधित कानून हैं द फैक्ट्रीज एक्ट1948 और द माइनिंग एक्ट 1952 । मजदूरों की पेशागत और शारीरिक तकलीफ के इतिहास का आकलन और छाती के एक्स-रे से बीमारियों की जाँच सम्भव है। एक्स-रे प्लेटों का आई.एल.ओ. (ILO) वर्गीकरण कर धूल के सम्पर्क में रहने की पुष्टि की जाती है और लगातार फैलनेवाली बीमारियों के विस्तार की जानकारी दी जाती है। इसी प्रक्रिया से सिलिकोसिस के साथ फेफड़े की अन्य पेशागत बीमारियों की जाँच की जाती है। फैक्ट्रीज एक्ट 1948 की तीसरी सूची में अनुबंधित बीमारियों के लक्षण मजदूरों में पाये जाने पर चिकित्सक को मुख्य कारखाना निरीक्षक को सूचित करना कानूनी बाध्यता है। अनुबंधित बीमारियों से पीड़ितों और मृतकों के परिजनों की सामाजिक सुरक्षा के लिये नियोजक द्वारा कानूनन वर्कमैन कंपेंनसेशन एक्ट 1923 और ईएसआई एक्ट 1948 के हत मुआवजा देने का प्रावधान है। लेकिन भ्रष्टाचार के कारण कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश लागू नहीं हो रहा है और मजदूर न्यायोचित अधिकार से वंचित हैं। सिलिकोसिस सहित अन्य पेशागत बीमारियों की पहचान बी के रूप में की जाती है। अस्पतालों में सिलिकोसिस पीड़ितों को पर्ची नहीं दी जाती है। भर्ती होने पर छल से उन्हें निकाल दिया जाता है। उनकी जाँच सही पद्घति से नहीं की जाती है और डॉक्टरों द्वारा टीबी से पीड़ित बता दिया जाता है। टीबी के लिये मुआवजे का प्रावधान नहीं हैं। इस तरह मजदूरों को अपने अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। इन इकाईयों के मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी सहित श्रम अधिकारों और कानून के तहत मिलने वाली अन्य सुविधाएं भी नहीं दी जाती!
सिलिकोसिस से मरे श्रमिकों के मुआवजे के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक हस्तक्षेप याचिका दायर की गयी थी। इस पर अदालत ने 26 नवंबर 1996 को द वर्कमेन कंपनसेशन एक्ट 1923 के तहत सिलिकोसिस पीड़ितों और मृतकों के आश्रितों को मुआवजा देने की राय दी थी। राय के मुताबिक सम्बंधित कम्पनी को मुआवजा देना पड़ा जबकि वह इकाई डायरेक्टोरेट ऑफ फैक्ट्रीज में निबंधित ही नहीं थी। उनके मजदूरों को कोई भी नियुक्ति पत्र, गेट पास और कम्पनीके मजदूर होने का प्रमाणपत्र नहीं दिया गया था। यह दिखाता है कि कम्पनी और श्रमिकों के सरकारी विभागों में निबंधित होने या नहीं होने या मजदूरों की यूनियन होने या नहीं होने से कोई इकाई संगठित से असंगठित नहीं हो जाती। तथाकथित असंगठित इकाई की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। लिहाजा इन पर श्रम अधिकारों से सम्बंधित कानून लागू नहीं होते। फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के तहत उपायुक्त, जिला मजिस्ट्रेट, जिला कलक्टर को कारखाना निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है। लेकिन यह निरीक्षण होता ही नहीं। इसी वजह से कार्यक्षेत्र असुरक्षित रहता है और मजदूर पीड़ित होते हैं। इकाई अगर निबंधित नहीं है या मजदूरों को पहचान पत्र नहीं दिया जाता है तो उक्त इकाई के मालिक, प्रबन्धक, सम्बंधित सरकारी नियामक विभाग, कारखाना निरीक्षक, श्रम विभाग और सर्वोपरि जिला प्रशासन जिम्मेदार है। सिलिकोसिस या अन्य पेशेगत बीमारियाँ टीबी या एचआईवी एड्स जैसी छुआछूत की बीमारियाँ नहीं है। इसे असंगठित इकाई बताकर या दोषी इकाई को बंद हो गया बताकर मुआवजा देने की जिम्मेदारी से मुकरा नहीं जा सकता। उसके कार्यक्षेत्र में मजदूरों के सिलिकोसिस या अन्य पेशागत बीमारियों से पीड़ित होने और उसकी मौत के लिये जिम्मेदार भी उपरोक्त सभी सरकारी प्रशासनिक पदाधिकारी हैं। इसीलिये सर्वोच्य न्यायालय ने अपने आदेश में मुआवजा देने की राय दी सरकार को मुआवजा देना ही है। फिर भी हजारों मजदूरों के मरने के बावजूद राजनीतिक दलों और ट्रेड यूनियनों के नेता और कार्यकर्ता, एनजीओ, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता उदासीन बने हुये हैं। वे पेशागत बीमारी से मौत को अहम मुद्दा नहीं समझते और उसे मुद्दा नहीं बनाते

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