बुधवार, 22 जून 2022

लाठियां तनी रहे सदा,कोई मुझे तो कोई उसे पट्टी पढाने लगे- कविता:करणीदानसिंह राजपूत

 




 कोई मुझे तो कोई उसे पट्टी पढ़ाने लगे,

लाठियां तनी रहे सदा, ऐसे गुर बताने लगे।

कोई इधर कोई उधर,

पट्टी पढ़ाने लगे​।

लाठियां तनी रहे सदा,

 ऐसा गुर बताने लगे।

मित्रता का सिलसिला,

चल रहा था

सैकड़ों सालों से,

वह खत्म हो गया पल में,

 पट्टी पढ़ाने वालोंसे।

कैसी थी मित्रता और कैसा था व्यवहार,

 सब चौपट हो गया,

 और अभी आगे क्या होगा,

 बुरा हाल मेरा और उसका?

मेरा खेत उसका खेत, लताओं की तरह,

लिपटें हैं पास पास।

 एक दूजे का खेत खोदते,

 एक दूजे का खेत बोते।

फसलें लहलहाती,

निहाल होते,

 हंसते-गाते त्यौंहार मनाते।

अनूठा प्रेम बंधन,

वर्षो का सिलसिला था।

 किसी ने एक दूजे को,

 पराया नहीं माना।

 अपना ही माना,

अपना ही जाना।

मेरा खेत उसका खेत,

लताओं की तरह लिपटे हैं,

पास-पास।

हर बार की तरह,

 इस बार भी बीजे थे,एक दूजे के खेत।

फसलें लोगों ने देखी,

सब ने सराहा,

राष्ट्र के उत्पादन की,

 फसल आई।

हम हर्षित हो गए,

एक कदम विकास का और आगे,

कहते हुए प्रशासन ने भी पीठ थपथपाई।

हमारे खेत,

हमारी फसलें,

देखने लोग आने लगे।

चर्चाएं आम होने लगी।

काम हो तो ऐसा हो,

 साथ हो तो ऐसा हो।

 रेडियो और टीवी भी,

सुनाने दिखाने लगे।

अनूठी मिसाल।

अखबार भी नए नए रूप में,

दोहराने लगे।

मेरा खेत उसका खेत,

लताओं की तरह लिपटे हैं,

पास पास।

लेकिन,

 यह अचानक कैसा बदलाव आया,

 इस बार की फसलें न घरों में,

और न मंडी में ले जा पाए।

मैंने उसका खेत,

और उसने मेरा खेत,

 जला डाला।

 घरों को भी राख में बदल डाला।

यह कई सालों की दोस्ती में,

 कैसा परिवर्तन आया?

 लाठियां चलीं सिर फूटे,

अस्पताल थाने कचहरी पहुंचे।

 सालों की दोस्ती में,

 दुश्मनी छा गई।

दोनों ओर जुट गए थे लोग,

एक दूजे का सर झुकवाने को,

जो पहले मित्रता की बड़ाई करते थे,

अब दुश्मनी के,

 नए-नए पैंतरे सिखाने लगे।

 समय कितना बदल गया?

एक दूजे का हालचाल,

जाने बिना,

हम दोनों रोटी,

नहीं खाते थे।

अब एक दूजे को,

 बददुआओं के संदेसे,

 भिजवाने लगे।

पड़ोस के लोग,

बन गए  डाकिये।

जो कभी दोनों के,

 खैरख्वाह थे।

शुभचिंतक थे।

 कितना बदलाव आ गया।

कोई मुझे,

 कोई उसे,

पट्टी पढाने लगे।

लाठियां तनी रहे सदा,

 ऐसा गुर बताने लगे।

मेरा खेत उसका खेत,

लताओं की तरह,

 लिपटे हैं पास पास।

हमारे खेत लहराते,

 फसलें होती।

 न मैं कर्जदार था,

न वह कर्जदार था।

अब खेत और घर,

 स्वाहा हो गए।

अब कर्जदार मैं हो गया,

और कर्ज़दार वह भी हो गया।

 यह कर्जा न खेतों का है,

 न घरों का है।

 दोनों डूबते जा रहे हैं,

थाना कचहरी के खर्चों में।

मेरा खेत उसका खेत,

लताओं की तरह लिपटें हैं,

 पास पास।

 हरियाले फूलों वाले खेत,

 राख में बदल काले हो गए।

यह सपना नहीं सच है।

यह कल्पना नहीं सच है।

एक का मुंह पूरब की ओर,

दूसरे का मुंह पश्चिम की ओर है।

लोग आते हैं,

पीठ थपथपाते हैं,

दुश्मनी भी हो तो ऐसी हो,

 नए पैदा होने वाले के,

 हाथ में भी खंजर हो।

मेरा खेत उसका खेत,

 लताओं की तरह लिपटें हैं

 पास पास।

अनूठे खेतों की कहानी,

नए रूप में उठी,

रेडियो टीवी अखबार,

कारण बताने लगे।

समय बीता और बदले लोग,

उसे और मुझे समझाने लगे।

उसकी बुद्धि और मेरी बुद्धि पर,

कोई तीसरा ही छा गया था।

वह तीसरा दूर बैठा,

आग लगा रहा था।

मामूली मामूली बातों से,

हमको भड़का रहा था।

मैं भी अनजान और,

वह भी अनजान,

उलाहनों में खो गए थे।

मामूली मामूली बातों से,

युद्ध और लड़ाईयां हुई,

वही इतिहास मेरे,

और उसके बीच,

 दोहरा रहा था।

तेरी भैंस मेरा बूटा चर गई,

तेरी गाय मेरी ढाणी में

 गोबर कर गई।

तेरे छोरे ने गाली दी,

मेरे छोरे ने कान उमेठा,

चपत लगाई।

सालों से होती थी यह बातें,

और इन बातों पर,

 हंसी के फव्वारे फूटते थे।

ना कोई झगड़ा था,

ना कोई रगड़ा था,

लेकिन उस दूर बैठे​,

तीसरे को यह,

रास नहीं आ रहा था।

उसने लड़ाया।

बड़ी-बड़ी नहीं,

छोटी-छोटी

मामूली बातों में,

हम उलझ गये।

काश ! हम दोनों,

उसकी हरकतों को,

चालों को, समझ पाते।

एक दूजे के खेतों को,

 यूं आग न लगाते।

वह दूर बैठा तीसरा,

उसे और मुझे ही नहीं,

औरों को भी यूं ही लड़ा रहा है।

 कहीं दंगे और कहीं फसाद,

 करा रहा है।

अरे,

हम समझ गए,

उस तीसरे की चालों को।

समय आ गया है,

और लोगों को भी,

समझा दें।

उस तीसरे की चालों से।

अरे,

रेडियो टीवी अखबार वालों,

देरी न करो जल्दी पहुंचों।

कोई और खेत कहीं,

स्वाहा न हो जाए।

मेरे देश को जलने से बचा लो।

 हमारे खेतों को जलने से बचा लो।

हमारी मित्रता और,

 दोस्ती को बचा लो।

मेरे राष्ट्र को बचा लो।

मेरे राष्ट्र को बचा लो।

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28 जनवरी 2018.

अपडेट 22 जून 2022.

यह कविता लगभग 2001 के करीब रची गई थी और आकाशवाणी सूरतगढ़ केंद्र से प्रसारित हुई थी।

इस कविता में यह संदेश दिया गया है की कोई दूर बैठा तीसरा लड़ा रहा है।।

यही स्थिति देश के भीतर भी है।

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करणीदान सिंह राजपूत, 

 राजस्थान सरकार द्वारा अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार,!

 सूरतगढ़। राजस्थान

भारत

संपर्क  94143 81356.

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