रविवार, 4 अक्तूबर 2015

नींद न जाने कितनी दूर थी,,,,कविता.



नींद न जाने कितनी दूर थी
मैं देखते हुए तुम्हें,
जाग रहा था।
तुम बेचैन थी
नींद न जाने कितनी दूर थी।
प्यार की चाहत में
मधुर क्षण पाने को
मैं देखते हुए तुम्हें,
जाग रहा था।
तुम बेचैन थी
नींद न जाने कितनी दूर थी।
धीमी धीमी सी हवा
उड़ा रही थी आँचल।
तुम संवारती रही बार बार
कपोलों पर आती
झूमती लटों को।
तुम बेचैन थी
नींद न जाने कितनी दूर थी।
कपोल सुर्ख चाँदनी में
बेचैनी में भी शरमा रहे थे
गेसू काले काले झिलमिल करते
मिलन सुख की आस में,
इतरा रहे थे।
मैं देखते हुए तुम्हें,
जाग रहा था।
तुम बेचैन थी
नींद न जाने कितनी दूर थी।
तुम मिलन की आस में
नीची निगाहें धरती पर गड़ाए
मौन में मंथन कर रही थी।
मैं पाने की चाहत में
शांत था तुम्हें देखते हुए,
न जाने कब लहर आ जाए
और आलिंगन सपना बन जाए।
दोनों का धैर्य चरम पर था
लहर के इंतजार में।
न तुम खोना चाहती थी
न मैं खोना चाहता था।
मैं देखते हुए तुम्हें,
जाग रहा था।
तुम बेचैन थी
नींद न जाने कितनी दूर थी।
तुम मेरे समीप थी,
मैं तुम्हारे समीप था।
मिलने को आतुर थे दोनों,
बीच में हवा की दीवार थी।
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करणीदानसिंह राजपूत,
स्वतंत्र पत्रकार,
सूरतगढ़।
94143 81356.

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