मतदाता सूची का संशोधन या लोकतंत्र का विलोपन❓
_*बिहार में बिना सहमति फॉर्म अपलोड करने की प्रक्रिया पर गंभीर सवाल*_ ❗
बिहार में मतदाता सूची सुधार प्रक्रिया को लेकर गंभीर आरोप सामने आए हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने सुप्रीम कोर्ट में दायर पुनरुत्तर में यह दावा किया है कि निर्वाचन अधिकारियों द्वारा मतदाताओं की जानकारी या सहमति के बिना फॉर्म भरकर ऑनलाइन अपलोड किए जा रहे हैं । यह आरोप न केवल चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर प्रश्न खड़ा करता है, बल्कि लोकतंत्र की बुनियादी भावना को भी चुनौती देता है ।
दरअसल, निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित इस विशेष पुनरीक्षण अभियान का उद्देश्य मतदाता सूची को अद्यतन करना था—यानि नए मतदाताओं को जोड़ना, मृतकों या स्थानांतरित लोगों के नाम हटाना, और गलत जानकारी को दुरुस्त करना। लेकिन यह प्रक्रिया अब अपने उद्देश्य से भटकती दिख रही है। ADR के अनुसार, बूथ स्तर के अधिकारी (BLOs) खुद ही लाखों की संख्या में फॉर्म भर रहे हैं, वह भी बिना मतदाताओं से मिले, बिना दस्तावेज लिए, और बिना उनकी अनुमति के। कुछ लोगों को तो मोबाइल पर उस फॉर्म की रसीद भी मिली, जिसका उन्होंने कोई आवेदन ही नहीं किया था।
चौंकाने वाली बात यह है कि एक BLO को 3 लाख से अधिक मतदाताओं के फॉर्म सत्यापित करने की जिम्मेदारी दी गई है—जो किसी भी व्यावहारिक प्रक्रिया का मज़ाक है । यह केवल औपचारिकता निभाने का प्रयास प्रतीत होता है, जिसमें पारदर्शिता और जवाबदेही का सर्वथा अभाव है। ऐसे में यह आशंका बढ़ जाती है कि लाखों असल मतदाता, जिनका नाम ड्राफ्ट सूची में नहीं आएगा, अपने अधिकार से वंचित हो जाएंगे, यदि वे समय रहते दावा न करें।
ADR ने यह भी आरोप लगाया है कि इस प्रक्रिया में मृतकों के नाम पर भी फॉर्म अपलोड किए गए हैं। यह इलेक्टोरल रोल की विश्वसनीयता पर बड़ा धब्बा है। वहीं दूसरी ओर, चुनाव आयोग द्वारा आधार कार्ड, वोटर ID और राशन कार्ड को *अविश्वसनीय दस्तावेज़* मानना, करोड़ों गरीब और ग्रामीण मतदाताओं के लिए संकट बन गया है। जब इन्हीं दस्तावेजों पर अब तक पहचान और पात्रता की पुष्टि होती रही है, तो अब इन्हें नकारने का क्या औचित्य है ❓
चुनाव आयोग का यह तर्क कि मतदाता दावा कर सकते हैं, व्यावहारिक नहीं लगता। अक्टूबर-नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव संभावित हैं, और मतदाता सूची का ड्राफ्ट 1 अगस्त को आना है। ऐसे में नाम कटने की स्थिति में व्यक्ति के पास दावा करने, सुनवाई करवाने और नाम वापिस जुड़वाने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं होगा।
इस पूरी प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में यह डर स्पष्ट है कि मतदाता सूची का यह *सफाई अभियान* कहीं राजनीतिक उद्देश्य साधने का माध्यम न बन जाए। यदि किसी विशेष समुदाय, क्षेत्र या विचारधारा के लोगों को साज़िशन सूची से बाहर किया गया, तो चुनाव परिणामों को प्रभावित करना संभव होगा—जो लोकतंत्र के विरुद्ध सीधा हमला है।
जरूरत इस बात की है कि चुनाव आयोग इस प्रक्रिया को पारदर्शी, जन-सहभागिता पर आधारित और समय-परक बनाए। ADR जैसी संस्थाओं की रिपोर्टिंग और पत्रकार अजीत अंजुम की ग्राउंड रिपोर्ट्स इस बात की चेतावनी हैं कि यदि समय रहते सुधार नहीं किया गया, तो मतदाता सूची सुधार का यह अभियान खुद लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है।
यह याद रखना होगा कि चुनाव केवल मतपत्रों से नहीं, मतदाताओं के विश्वास से जीते जाते हैं। और जब एक नागरिक को अपनी पहचान साबित करने के लिए न्यायालय का सहारा लेना पड़े, तब हमें यह स्वीकार करना होगा कि लोकतंत्र में दरारें पड़ चुकी हैं ।
@ _*रुक्मा पुत्र ऋषि*( वरिष्ठ पत्रकार.)
जयपुर.
( साभार)