~ करणीदानसिंह राजपूत ~
बेंकों में रकम रखना बहुत सुरक्षित समझा जाता था और सरकार भी यही विश्वास देती थी। हालात ने बैंकों व सरकार पर भरोसा खत्म ही कर दिया है।
आज व्यक्ति नोट बंदी और काले धन पर चर्चा नहीं कर रहा,अपनी गाढ़ी कमाई की चिंता कर रहा है जो उसने पूरे भरोसे पर बैंक में जमा करवाई थी कि घर परिवार में उत्सव में या फिर अचानक आई बीमारी या संकट में काम आएगी। यह भरोसा बैंक ने नोट पर छपवा कर दिया भी था और इस भरोसे के लिए विगत की सरकारें पूर्ण निष्ठा से पालन भी करती रहीं।
कहा जाता था कि किसी व्यक्ति को दिया हुआ धन हड़पा जा सकता है और ऐसी घटनाएं होती भी रहती थी। लेकिन बैंक में जमा खुद की रकम ही व्यक्ति जरूरत के समय नहीं निकाल पाएगा
और बैंक के आगे दम तोडऩा पड़ेगा। यह तो किसी ने भी नहीं सोचा होगा।
अगर बैंक ही पैसा न दे या ऊंट के मुंह में जीरा जितना दे तब हालात अच्छे तो नहीं समझे जा सकते।
अपने ही नोट मांगने वालों को सीमा पर तेनात जवान का हवाला देकर चुप कराया जा रहा है,हड़काया जा रहा है। दोनों की अपनी अपनी स्थिति है और उसकी तुलना नहीं की जानी चाहिए।
एक सबसे बड़ा सवाल है कि जब भी नोट बंदी पर कोई राजनेता व पार्टी विरोध में बयान जारी करती है तब तब उसको राजनीति की तरफ मोडऩे की कसरत शुरू हो जाती है।
भाजपा अन्य राजनैतिक दलों के द्वारा बयान जारी करने पर राजनीति करने लगती है जबकि जो बयान आ रहे हैं वे केवल व्यक्ति को आसानी से उसकी रकम देने के लिए होते हैं। किसी व्यक्ति की जमा रकम देने में रोक लगाई जा रही है, या अंकुश लगाया जा रहा हे तब क्या कोई बोल भी नहीं सकता?
बैंक के खातेदार सम्मानित व्यक्ति माने जाते रहे हैं लेकिन उनको लाइनों लगाया जाना और लाठियां चलवाया जाना तो बर्बता का प्रतीक है। हम इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं और हमारे जीने का ढंग कबीलों से भी गया गुजरा हो तो बोलना लिखना बयान देना कहीं गलत नहीं है।
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