गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

पानी उतरे हुए नेताओं की देन है सिंगरासर पानी आन्दोलन


लरड़ा, लटठ, लंगूर, लोफर, लम्पट, लालची
कदै न निकळै सूर, सिंघ सरीखा 'शारदा' ।
आक्रोश और गुस्से से भरे माहौल ने इतना तो तय कर ही दिया है कि सिंगरासर माइनर का आन्दोलन टिब्बा क्षेत्र के लोगों की नहीं बल्कि पिछले चालीस सालों में यहां से बने कमजोर 

डॉ. हरिमोहन सारस्वत ‘रूंख’
विधायकों की देन है। वास्तविकता यही है कि इन जनप्रतिनिधियों ने टिब्बा क्षेत्र के लोगों की पानी की मांग को कभी गंभीरता से उठाया ही नहीं। जब-जब वोटों का समय आया इन चतुर सुजानों ने यहां के भोले-भाले धरतीपुत्रों को गुड़लिपटी बातों के मायाजाल में फंसा कर अपने सिट्टे सेक लिए और पांच साल मजे में गुजारेे। यहां के किसानों ने जब-जब अपने हक का पानी मांगा तो इन लोगों ने सिर्फ सब्ज बाग दिखाने का काम किया लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। यही कारण है कि पिछले 
पचास सालों में सूरतगढ़ विधानसभा क्षेत्र से कोई भी विधायक दुबारा जनता का दिल नहीं जीत पाया और अन्तत: वह यहां पनपने वाले नित नये नेताओं की भीड़ में खो गया। 
जरा सोचिए, कितनी गंभीर बात है कि इंदिरा गांधी नहर का पानी राजस्थान के एक छोर से दूसरे छोर तक जा पहुंचा है लेकिन आरम्भिक बिंदू पर बसे 54 गांवों के नसीब में यह पानी नहीं है। यह दोष किसका है ? सरकारें आती रही, जाती रही लेकिन किसी ने भी यह जहमत तक नहीं उठाई कि जब पूरे राजस्थान में ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लिफ्ट के जरिये पानी पहुंचाया गया है तो टिब्बा क्षेत्र की जनता ने किस मोरड़ी को भाठा मार दिया है ?
आज जब पानी की मांग कर रहे इन लोगों के सिर से पानी गुजर चुका है तो वे आन्दोलन नहीं करें तो क्या करें ? इस पर सरकार का निकम्मापन और ढिठाई देखिए कि कमेटी के गठन का सदाबहारी राग अलाप रही है। सरकार के मन्त्री कह रहे हैं कि माइनर निर्माण से पहले पानी की उपलब्धता तय करना जरूरी है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि सरकार बनने के ढाई साल बाद भी वे इतना ही तय नहीं कर पाए कि पानी है भी या नहीं तो आगामी ढाई साल में क्या खांगी कर लेंगे। तथ्य यह भी है कि इसी भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल में कानौर हैड पर लगे धरने के बाद एक कमेटी बनाई गई थी लेकिन उसकी रिपोर्ट आना तो दूर, वह एक मीटिंग से आगे ही नहीं बढ़ पाई, ऐसे में फिर एक नई कमेटी के गठन कवायद क्यों ?
वास्तविकता यह है कि लोकतन्त्र में सबसे भदï्दा मज़ाक होता है सरकार द्वारा कमेटियों और आयोग का गठन। जनता उम्मीदें बांधती है और सरकार अपने हित साधती है। सरकारें जानती है कि ‘न नौ मन तेल होगा और न ही राधा नाचेगी।’ जनता को बेवकूफ बनाना हो तो सबसे सस्ता और प्रभावी तरीका है ‘कमेटी का गठन करना’। आज तक इस देश में जितनी भी कमेटियों या आयोगों का गठन हुआ है उनकी रिपोर्टï्स या तो आई ही नहीं या गर आई तो उन्हें लागू करने की बजाय ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। कमोबेश यही नतीजा सिंगरासर माइनर को लेकर बनी नई सरकारी कमेटी का होने वाला है। 
सरकारों की उदासीनता और ढुलमुल रवैये वाले जनप्रतिनिधियों के आचरण का ही परिणाम है कि इस बार धोरों का प्यासा किसान तपती धूप के बीच आर-पार की लड़ाई लडऩे के लिए लामबंद होकर पानी के लिए अड़ गया है। यह आन्दोलन किस करवट बैठता है यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इतना तय है कि इस बार टिब्बों की धूल कई नेताओं के मुखौटे उतारने वाली है।पानी उतरे हुए नेताओं ने धोरों की इस धरती के किसानों को जितना बरगलाया है उसका परिणाम उन्हें भोगना ही होगा।
डॉ. हरिमोहन सारस्वत ‘रूंख’

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