बुधवार, 11 जनवरी 2017

जवानों की खाद्य सामग्री की प्रयोगशाला जाँच अनिवार्य हो: सेवा निवृत जवानों से पूछें:


दाल पानी वाली और जली रोटी के विडीयो ने देश भर में तूफान मचा दिया है। इस पर चैनलों में बहस चल रही है। बहस में सेना के बड़े अधिकारी, सेना से सेवानिवृत अधिकारी व रक्षा विशेषज्ञ अपने अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। चैनलों पर चल रही बहस में कई यह कह रहे हैं कि अच्छा भोजन मिलता है। असल में यह सच्च नहीं है। बहस में भाग लेने वाले अधिकारी रहे हैं इसलिए उनका भोजन तो निश्चित रूप से अच्छा ही रहा होगा। अधिकारी का भोजन घटिया बनाए या अधपका बनाए यह किसी की भी हिम्मत नहीं हो सकती।
जवानों के भोजन में और अधिकारियों के भोजन में बनाने से लेकर परोसने तक में भारी अंतर रहता है। जवानों को अनुशासन के नाम पर घटिया सामग्री के बनाए भोजन को खाना पड़ता है। सच्चाई यह भी है कि भोजन अधपका ही होता है और इसलिए अनेक जवान दाल चावल ही खाना अधिक पसंद करते हैं।
भोजन की सामग्री तय मानक के अनुसार गुणवत्ता वाली नहीं होती जिसका बड़ा कारण है कि सामग्री की सप्लाई ठेकेदारों द्वारा होती है जिसमें व्यापक भ्रष्टाचार होता रहा है।
शिविरों में जहां अधिकारी अपने स्तर पर स्थानीय बाजारों से मसाले आदि खरीदते हैं वे घटिया से घटिया खरीदने के प्रयास में होते हैं लेकिन खरीद का बिल अधिक ही बनवाते हैं। इसकी व्यापक जाँच शायद नहीं हो पाती। इस प्रकार से स्थानीय स्तर पर मसाले खरीदने की प्रयोगशाला जाँच भी नहीं हो पाती।
खाद्य सामग्री की प्रयोगशाला जाँच हर हालत में हो व पकाए जाने की भी जाँच हो तब जवानों को सही पौष्टिक भोजन मिल पाएगा।
हमारे देश में आंगनबाड़ी में भोजन को परखने चखने के निर्देश हैं मगर सुरक्षा बलों में कोई उचित व्यवस्था नहीं है।
माँसाहारी भोजन की भी जाँच कैसी होती है? सप्लायर बूचरी में जैसे भेड़ बकरियां देता है वे ही काटी जाती है। नियम के अनुसार तो बूढ़ी बीमार भेड़ बकरियां नहीं काटी जा सकती लेकिन काटे जाने से पहले कौन जाँच करता है? अगर सही प्रक्रिया की जाँच हो तो मालूम पड़ेगा कि सप्लाई में कितना भ्रष्टाचार है?
जो लोग बताना चाहे तो वे सेना अनुशासन के नाम पर प्रताडि़त किए जाते हैं। मानसिक हालत खराब बतलाते भी देर नहीं की जाती। इसलिए कोई एक आवाज उठाता है। बाकियों को दबा दिया जाता है। कारण यक ही होता है कि जवानों में लगभग सभी गरीब घरों से सामान्य घरों से होते हैं वे अधिकारी के विरूद्ध मुंह नहीं खोल पाते।
सेना व अद्र्ध सैनिक बलों में जो भोजन सामग्री आती है उसका पहले रासायनिक जाँच अनिवार्य हो तथा भोजन बनने के बाद भी सैम्पल सुरक्षित रखे जाने की प्रक्रिया हो।
अब वह सवाल कि जवान ने सोशल मिडीया में क्यों दिया तो वह कहां देता? अधिकारी सुनते नहीं और अखबार छापते नहीं। अभी कई अखबारों में इसे अनुशासनहीनता बतलाया गया। कई यह भी कहते रहे हैं कि इससे अधिकारियों का मनोबल टूटेगा। जवान और अधिकारी आमने सामने होंगे। अनेक अखबार वालों को जमीनी हकीकत का मालूम नहीं है लेकिन उन्होंने लेख लिख डाले व टिप्पणियां तक लिख डाली। उनकी बुद्धि पर तरस आता है। इन हालातों में सेना में कौन भरती होगा?
अनुशासन के नाम पर कब तक जवान को बिना गुणवत्ता वाला भोजन खिलाते रहेंगे? सेवा वालों पर तो अनुशासन की लगाम रख कर डराया जा सकता है लेकिन जो सेवा निवृत हो चुके हें उन जवानों से पूछ लें कि जवानों को कैसा भोजन मिलता है?

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