शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

कविता: मुखौटा


लो तुम्हारा मुखौटा भी उतर गया
लोगों के सामने
बहरूपिये स्वांग रचते हैं
अलग अलग
बड़ा ध्यान रखते हैं
कोई लट निकल न जाए
और जहां जाए वैसी बोली
निकालते हैं हाथ पांव जोड़
माई बाप तो कहीं राजा सा रौब
अपनाए।
कम तो तुम भी न थे
होशियारी में
बोली में
जितने मासूम से
मन में चालाकी से।
कितने सालों से
तुम्हारा चेहरा
छुपा था मुखौटे में।
अनेक लोगों ने देखा था
पहले मगर चुप थे।
अब तुम्हारा बहरूपियापन
छिपाए नहीं छिपा
तुम्हारी एक लट
नहीं हटी
पूरा स्वांग ही उतर गया।
अच्छे स्वांग की
प्रशंसा जो थी सालों से
वह उजागर हुई
तुम तो साधु भेष में
रावण के सैनिक निकले।
तुम कैसे चला सकते हो
रावण पर तीर।
अब रावण लंका में नहीं रहता
हर शहर हर कस्बे में
हमारे देश में
रहता है।
एक तुम्हें क्या दोष
रावण से स्वर्ण लेने की
ईच्छा तो सभी की
होती आई है
तुम्हारी ईच्छा
कोई अलग नहीं
बस,
इतना हुआ कि वह
लोगों के सामने
उजागर हो गई।
रावण की स्तुति
में तुम्हारा मुखौटा
उतर गया।
तुम थे तो पक्के बहरूपिए
मगर कच्चे निकले।
रावण की प्रशंसा
किसी काल में नहीं हुई
तुम तो महज
उसके सैनिक निकले।
रामलीला का मंचन
होता है तब
कलाकार छोटे बड़े
सब राम की सेना में
नाम लिखाते हैं
और तुमने
अपना नाम लिखाया
रावण की सेना में।
लो, तुम्हारा भी मुखौटा
उतर गया लोगों के सामने।


- करणीदानसिंह राजपूत
स्वतंत्र पत्रकार,
सूरतगढ़।
94143 81356

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