बुधवार, 13 जून 2018

न्याय पालिका पर राजनीतिक दबाव ? लेख- रमेश छाबड़ा


अरुण जेटली ने कहा है कि जो लोग न्याय पालिका पर वर्तमान में दबाव देने की बात कहते हैं उन्हें नेहरू और इंदिरागांधी के शासनकाल को याद करना चाहिए और जानना चाहिए कि उस समय जजों पर किस तरह दबाव डालकर अपने हक़ में निर्णय करवाये जाते थे।नेहरू और इंदिरा का जमाना याद करने को कह रहे हैं जिन्हें  गुजरे बहुत बरस हो गए।अब नई पीढ़ी को क्या पता उस समय क्या होता था?सत्ता जब निरंकुश हो जाय तो ऐसी सम्भावना से इंकार तो नहीं किया जा सकता। हालांकि इस बात के नाप तौल का कोई पैमाना नहीं हो सकता जिससे पता चले कि कौन कितना दबाव डालता है ।ये सब चीजें परदे के पीछे होती हैं। प्रत्यक्ष या प्रमाण तो कोई होता नहीं । इसलिए भी पता नहीं चलता। फिर भी आज जो घटनाएं घट रही हैं जिन्हें देश साफ देख रहा है और उसी से अनुमान लगाये जा सकते हैं।इसी वर्ष जनवरी में देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों को कोर्ट से बाहर आकर प्रेस कांफ्रेंस करते देखा जो कह रहे थे अब इस समय सुप्रीम कोर्ट ही नहीं देश का संविधान और लोकतंत्र खतरे में है। इन जजों की इस कार्रवाई के बाद भी कहीं ऐसा नहीं लगा कि उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों का कोई निराकरण हुआ हो।देश के आज़ाद होने के बाद न्यायपालिका में ये इस प्रकार की पहली ऐसी घटना है।इससे पहले देश ने ये भी देखा कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को  जे एस खेहर,जो पीएम के साथ एक मीटिंग में मंच साझा कर रहे थे आँखों में आंसू भर कर जजो की लंबित नियुक्तियों पर सरकार से कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं पर शायद उस पर सरकार द्वारा कोई अपेक्षित कार्रवाई नहीं हुई।सुप्रीम कोर्ट से कोलेजियम द्वारा भेजी जजो की नियुक्ति संबधी प्रस्तावों को सरकार द्वारा बिना किसी कार्रवाई के लंबित रक्खे जाने या कोलेजियम की रिपोर्ट की अनदेखी करने के समाचार आते रहे हैं। देश की प्रबुद्ध जनता ने ये भी देखा कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही एक जज की संदिग्ध मौत की जाँच करने में अपने आप को असहाय पा रही है।कारण समझा जा रहा है कि इस जाँच की आंच बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तक आ सकती है इसलिए जाँच मुश्किल है।ये तो आज की स्थिति है और जिस स्थिति की तुलना करने को जेटली कह रहे है उसमें उल्लेखनीय है कि उस समय के राष्ट्रीय महत्व के फैसले जिसमे बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण व राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त करना शामिल थे ,सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिए गए थे।अंत में इलाहबाद हाई कोर्ट का वो ऐतिहासिक फैसला जिसमे स्वयं प्रधान मंत्री इंदिरा गांघी के चुनाव को रद्द घोषित कर दिया गया था । आज क्या इस तरह फैसले की कल्पना की जा सकती है जिसमे पीएम को अपना पद छोड़ने को  बाध्य होना पड़े?इन सब के बावजूदअगर जेटली ये कहते है कि नेहरू और इंदिरा के शासन में जजो पर अधिक दबाव डाला जाता था ये कहना पड़ेगा कि ' छाज तो बोले सो बोले छलनी भी बोले जिसमे छेद ही छेद'।



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