शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

राजस्थानी साहित्य अकादमी का अध्यक्ष सरकारी नौकरी वाला न हो


राजस्थानी भाषा मान्यता का प्रस्ताव पारित हुए 12 साल बीत गए अब तो देरी न हो।
राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता के इंतजार में अनेक राजस्थानी साहित्यकार स्वर्ग सिधार गए और कई इस पंक्ति में पहुंचे हुए हें। कम से कम इस आस में जी रहे लोगों की आत्मा को अब आनन्दित कर दिया जाना चाहिए।
                - करणीदानसिंह राजपूत
राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी एक बार फिर कई महीनों से अध्यक्ष बिना लावारिस सी पड़ी है और इसकी समस्त गतिविधियां शून्य पड़ी है। राज्य सरकार द्वारा अध्यक्ष का मनोनयन होता है  और वह मनोनयन उसका होगा जिसकी सिफारिश होगी या कहना चाहिए कि जिसे सरकार अपना खास मानेगी। सरकार के मर्जीदान जो भी हों उनके कार्य कभी स्वतंत्र नहीं माने जा सकते,लेकिन इसके बारे में विचार अवश्य किया जाना चाहिए कि स्वतंत्र कार्यशैली के लिए अध्यक्ष उस व्यक्ति को मनोनीत किया जाना चाहिए जो सरकार में किसी भी पद पर नियुक्त न हो। सरकारी व्यक्ति चाहे किसी बड़े पद पर हो,राजस्थान प्रशासनिक सेवा में हो,उसकी कार्यप्रणाली सरकारी तरीके से ही चलती है। उसकी सोच ही अकादमी वाली नहीं होती है तब वह कितना ही अच्छा हो,वह अकादमी का कार्य रूचि से नहीं कर सकता। इस प्रकार के व्यक्ति का मनोनयन होने पर साहित्यकार बंधु स्वयं को असहाय लुटा पिटा सा अनुभव करते हैं और गतिशील रहने के बजाय शांत हो जात हैं। साहित्यकारों की शांति का फल यह होता है कि अकादमी का उद्देश्य ही शून्य होकर रह जाता है।
सुनने में आ रहा है कि सरकारी व्यक्ति भी अकादमी में मनोनयन के लिए प्रयासरत हैं। सरकारी नौकरी वालों के भी पिछलग्गु जरूर होंगे और वे चाहते भी होंगे कि उनके व्यक्ति का मनोनयन हो जाए। सरकारी नौकरी वाले की राजनैतिक पहुंच भी जरूर होगी लेकिन सरकार को इस प्रकार की गैर राजनैतिक संस्थाओं को स्वतंत्र रूप में ही देखना चाहिए। संभव है कि मेरे इन विचारों को अन्य साहित्यकार व राजस्थानी भाषा प्रेमी मानेंगे और समर्थन देंगे।
वर्तमान में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जब चाहेंगी तब यह मनोनयन होगा। इसकी स्वतंत्र कार्य शैली रखने से जो लाभ होगा उस पर भी विचार करना चाहिए।
राजस्थानी साहित्यकारों एवं भाषा प्रेमियों ने एक तरफ राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता के लिए संघर्ष छेड़ रखा है, मगर दूसरी ओर उनकी निष्क्रियता और किसी न किसी कारण से चुप रहने की प्रवृति के कारण राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी शून्य में तड़प रही है। समस्त गतिविधियां ठप्प पड़ी है। 
अकादमी का बजट अध्यक्ष के बिना लेप्स होता रहा है तथा एकमात्र राजस्थानी पत्रिका जागती जोत का प्रकाशन भी ठप्प पड़ा रहा है। अभी भी बुरा हाल है। इस पत्रिका का संपादक भी गैर सरकारी ही होना चाहिए।
राजस्थानी भाषा साहित्य का कोई भी कार्य नहीं हो, केवल कर्मचारियों को वेतन देने के लिए ही बजट उठाया जाए तो इसके लिए अकादमी की मौत के अलावा कोई अन्य शब्द नहीं कहा जा सकता। अध्यक्ष के बिना प्रस्तकों का प्रकाशन,पुरस्कार और सम्मेलन आदि सभी बंद पड़े रहते हैं।
    मैं पहले सन् 2009 में भी कह चुका हूं कि जागती जोत के प्रसार के बारे में भी कभी कोई प्रयास नहीं हुआ। इसके प्रचार प्रसार के लिए जो कदम उठाए जा सकते हैं, उनके बारे में भी सुझाव दे चुका हूं तथा वे समस्त सुझाव उस समय विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपते भी रहे हैं।
राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के विकास व समृद्धि के लिए इस पत्रिका का प्रदेश के हर उच्च प्राथमिक विद्यालय से ऊपर तक के हर शिक्षण संस्थान में,ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद के कार्यालयों में और नगरपालिका नगर निगम के कार्यालयों पुस्तकालयों में सरकारी स्तर पर पहुंचाया जाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसके लिए बजट सीधा शिक्षा विभाग, पंचायत राज विभाग और स्वायत शासन विभाग से ही अकादमी के पास पहुंचाने का कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए। राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता देर सवेर निश्चित ही मिलेगी इसलिए राजस्थानी को हर कार्यालय में विकसित करना भी जरूरी है।
    अकादमी की स्थापना भाषा साहित्य व संस्कृति के विकास व समृद्धि के लिए की जाती है। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की स्थापना का भी यही उद्देश्य था, लेकिन इस उद्देश्य का बीच बीच में अनेक बार विभिन्न तरह से गला घोंटा जाता रहा। राजस्थान सरकार अध्यक्ष के मनोनयन में ढील करे तो कोई प्रश्र करने वाला नहीं। राजस्थान के कण कण में वीरता और रण बांकुरों का इतिहास रमा हुआ है तथा हिन्दी का भक्ति व वीर रस तो राजस्थानी का ही है। रण बांकुरे राजस्थान के वर्तमान राजस्थानी साहित्यकारों ने चुपी क्यों धारण कर रखी है? कहा जाता है कि बीकानेर के महाराजा पृथ्वीराज की कविता ने महाराणा प्रताप को अकबर से युद्ध करने के लिए जोश भर दिया था। अब राजस्थानी साहित्यकार राजस्थान सरकार को क्यों नहीं जगा सकते? आखिर वे किन स्वार्थों व कारणों से चुप हैं? क्या इसके पीछे पुरस्कारों का   या भविष्य में कभी मिलने वाला अध्यक्ष पद व सदस्यता का लालच छिपा है। ये शब्द कड़वे माने जा सकते हैं मगर सच्च तो यही है।
    राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता के लिए राजस्थान विधान सभा में राज्य सरकार ने 25 अगस्त 2003 को एक प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भिजवाया था जिसके तहत राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल किए जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ था।  उस समय प्रदेश में अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे। अब तक 12 साल बीत गए लेकिन संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाई। अब केन्द्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार है और भारत के हर क्षेत्र के विकास की चाहत है तो फिर देरी करने के बजाए राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल किए जाने का प्रस्ताव भी पारित कर दिया जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कई भाषणों में इस प्रकार के वकतव्य दिए हैं कि काल करे सो आज कर,आज करे सो अब,पल में प्रलय होएगी,फिर करेगो कब? जो कार्य करना ही है तब उसे टालते रहने से कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। राजसथानियों को तो लाभ उस दिन मिलने लगेगा जब राजस्थानी को मान्यता मिल जाएगी।
राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता के इंतजार में अनेक राजस्थानी साहित्यकार स्वर्ग सिधार गए और कई इस पंक्ति में पहुंचे हुए हें। कम से कम इस आस में जी रहे लोगों की आत्मा को अब आनन्दित कर दिया जाना चाहिए।

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