शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

तुम्हारे मन के समंदर में उतरा:




तुम्हारे मन के समंदर में
उतरा और उतरता ही
चला गया।
गहरे तल तक असंख्य
दरद की चट्टाने,
और एक से एक जुड़ी।
मैं बाहर निकालने को आतुर
दरद की चट्टानों को,
एक मुस्कान ला दूं,
तुम्हारे चेहरे पर,
जो वर्षों से दुखों में डूबता रहा।
चट्टान तो एक को भी
निकालना दुष्कर,
और मैं असंख्य को निकालने को आतुर।
मुझे विश्वास है
अपने संकल्प पर,
चट्टानों को कंकड़ों में
बदल डालूंगा।
निकाल डालूंगा बाहर,
तुम्हारे मन को अब नहीं
लगने दूंगा कोई खरोंच।
ये अपने और ये अपना समाज
खुशी देना क्या जाने?
युग बदल गए
इनको समझाते।
इनकी मनमानियों से कितने
नष्ट हो गए झगड़ों में।
कृष्ण ने भी सोचा होगा
अर्जुन को गीता ज्ञान देते।
विनाश हो जाएगा दुष्टों का,
लेकिन दुष्टता न कम होगी न खत्म होगी।
बस,
नए दुष्ट पैदा हुए
बनता गया नया संसार,
इस युग के दुष्ट
चुभोते रहे छुर्रे कटारें।
मगर कोई साथ नहीं आया
धर्म निभाने,
देखते रहे अपने और रिश्तेदार।
शक्तिशाली समाज देखता रहा,
दुष्टों के हाथों में पुष्प कलियां
आवरण में छुर्रियां कटार,
और सुनता रहा
मंच पर झूठी घोषणाएं।
तुम्हारे मन में जो चट्टानें
दुखों की पड़ी हैं,
वैसी ही असंख्य लोगों के
मन में भी हैं।
मैं चाहता हूं कि सबके
मन और तन को
बचालूं दुष्टों से।
सच,क्या मैं कर पाऊंगा ऐसा
मेरे संकल्प से।
मेरा संकल्प सदा मजबूत रहा है।
बस। अब आँसू न बहाना।
वर्षों बीता दिए दुखों में
अब कुछ दिनों का इंतजार करना।
.......


करणीदानसिंह राजपूत,
स्वतंत्र पत्रकार,
सूरतगढ़।
94143 81356
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