बड़े डाक्टर बड़े अस्पताल और जानलेवा ईलाज
- करणीदानसिंह राजपूत -
दिल्ली के शालीमार बाग स्थित मैक्स हॉस्पिटल का लाइसेंस रद्द कर दिया गया जिसने जीवित बच्चे को मरा हुआ बताया था। इसके बाद हरियाणा के गुरुग्राम स्थित फोर्टिस अस्पताल की जमीन की लीज रद्द कर दी गई जिसने डेंगू पीड़ित बच्ची के इलाज का बिल 16 लाख रूपए तक वसूल किया और वह बच्ची मृत्यु की गोद में भी चली गई।
दोनों अस्पताल विख्यात हैं जिन के इलाज का खर्च भी लाखों में वसूला जाता है लेकिन वह खर्च कितना किस प्रकार से बनाया गया इसका कोई उचित हिसाब नहीं होता और रोगी या परिवारजनों को बताया भी नहीं जाता। केवल बिल दिया जाता है और वसूला जाता है। न जाने इस प्रकार की कितनी ही घटनाएं देश में प्रतिदिन होती हैं। रोगी के मर जाने या अधिक बीमार हो जाने पर परिवार वाले कुछ दिन हल्ला मचाते हैं मगर फिर मजबूर होकर चुप हो जाते हैं।
चिकित्सक और चिकित्सालय कानून के दांव-पेंच से और पैसे के बल पर बचते रहे हैं।
पीड़ित परिवार पहले लाखों रुपए अस्पताल में दे चुका होता है और बाद में अदालत में जाने के लिए भी लाखों रुपए चाहिए जो उनके पास बाद में बचे हुए नहीं होते।
इस प्रकार की घटनाओं के सभी जानकार होते हैं। चाहे शहर छोटा हो या बड़ा हो लेकिन व्यक्तिगत संपर्कों के कारण या अपना किसी प्रकार काम हित सोच नकर पीड़ित काम साथ नहीं देते।
इस प्रकार के चिकित्सकों को क्या नाम दिया जाए? सामान्य रूप में सभी भगवान का दर्जा देते हैं लेकिन इन भगवानों को मामूली सी भी दया नहीं आती? ये तो पत्थर के देवता भी नहीं हैं। पत्थर के देवता पर आस्था होती है कि वह हमारी मांग को पूरी करेगा या पूरी कर सकता है।
इनको मौत के देवता भी नहीं कहा जा सकता। मौत के देवता जिसके बारे में हम धार्मिक ग्रंथों में प्राचीन ग्रंथों में पढ़ते रहे हैं या सुनते रहे हैं। उस मौत के देवता के भी कुछ ना कुछ नियम बने हुए हैं। ऐसी घटनाएं हुई है कि मौत का देवता भी समय से पहले किसी को भी धरती से नहीं उठाता।
लेकिन आज काम चिकित्सक कब क्या कर जाए इसका भरोसा पीड़ित रोगी और उसके परिवार जनों को नहीं होता।
यह हालात हुए हैं इसलिए चिकित्सक को भगवान कहने से और बताने से आदमी कतराने लगा है।
अनेक अखबार चैनल वाले नाम देते हैं। मौत के सौदागर। खून पिपासु।राक्षसी चेहरा और ना जाने क्या-क्या।
हर रोगी को बचने की इच्छा होती है और परिवार जनों को रोगी को बचाने की इच्छा होती है इसलिए वे अपने आसपास के चिकित्सालय को छोड़कर बड़े से बड़े शहर के बड़े से बड़े चिकित्सालय को खोजते हैं लेकिन जो मौत छोटे शहर गांव में होने की उम्मीद नहीं होती वह बड़े हॉस्पिटल और बड़े शहर में हो जाती है।
जीवित लाते हैं,लाखों लगाते हैं और बाद में रोते हुए लाश को ले जाते हैं।
अनेक मामले होते हैं जिनमें हल्ला नहीं मचता इसलिए सरकारें भी खामोश रहती हैं। ये दो मामले ऐसे हैं जिन में कुछ पीड़ित बोले हैं तो उनके साथ मीडिया भी तथा लोग भी आवाज उठाने में आगे रहे।
चिकित्सा के अनेक नए-नए साधन आ चुके हैं वेंटिलेटर जो कृत्रिम रूप से जीवन देता है ताकि रोगी का इलाज उस काल में हो जाए। सोनोग्राफी मशीन से शरीर के अंदरूनी हिस्सों के बारे में रोगों की जानकारी मिलती है। एक्स रे भी बड़ा साधन है। ऐसे और भी उपकरण हैं। प्रयोगशालाओं की जांच भी रोगों को मालूम करने के लिए हैं। लेकिन आज ये सभी साधन लूट के साधन बन गए हैं।
इनको इजाद करने वाले बनाने वाले वैज्ञानिकों की दृष्टि तो जीवन बचाने की सोच के लिए थी लेकिन ये साधन अब राक्षसी वृति के कारण लूट के साधन बने हुए हैं।
वेंटिलेटर पर तो मरे हुए को भी सुलाए रख कर लाखों वसूल कर लिए जाने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। सोनोग्राफी में सब कुछ मालूम पड़ता है लेकिन सही स्थिति न बता कर लूट का तरीका खोजा जाता है। रोगी और रोगी के परिवार को भयभीत किया जाता है।
गर्भस्थ शिशु के बारे में सही रिपोर्ट न देकर देकर सामान्य प्रसव को भी शल्य चिकित्सा के जरिए करने की लूट बहुत हो रही है।
जीवित शिशु को,जीवित भ्रूण को मृत बताने की कितनी ही घटनाएं होती हैं मगर पीड़ित को प्रभाव से दबा दिया जाता है। ऐसी घटनाएं प्रकाश में भी नहीं आती।
आज उच्च चिकित्सा और आधुनिक उपकरण छोटे कस्बे तक में उपलब्ध हैं लेकिन इनसे कितने लोगों को जीवनदान मिला है और कितने लोग लूट के शिकार हुए हैं?
बड़ा चिकित्सालय और जिसमें बड़े साधन होते हैं वहां प्रबंधन मंडल भवन निर्माण और मशीनरी का खर्च जो करोड़ों में होता है वह 30- 40 सालों में पूरा करने के बजाय 4- 5 सालों में पूरा करने की प्रक्रिया अपनाते हैं। इस राक्षसी वृति के कारण ही लूट-खसोट होती है।रोगी का इलाज जो सैंकड़ों में होना चाहिए उसके हजारों रुपए वसूले जाते हैं और जो इलाज हजारों में संभव होता है उसके लाखों रुपए वसूले जाते हैं। एक ऐसी सोच बन गई है कि जितनी बड़ी फीस होगी उतना ही बड़ा डॉक्टर माना जाएगा। हालांकि मामूली सी फीस लेकर इलाज करने वाले चिकित्सक और चिकित्सालय हर जगह उपलब्ध हैं मगर हमारी मानवीय सोच के कारण बड़े चिकित्सालयों की ओर हम भागते हैं और उनकी लूट के शिकार होकर रोते रह जाते हैं। अधिकांश चिकित्सालयों में 24 घंटे की सेवाएं लिखी हुई प्रचारित की हुई होती है लेकिन सच में रात्रि में चिकित्सक उपलब्ध नहीं होता और बिना जानकारी वाले सामान्य कर्मचारी गंभीर से गंभीर रोगों का इलाज शुरू कर देते हैं पीड़ित और उसके परिवार जन बार-बार चिकित्सकों को बुलाने का आग्रह करते रहते हैं मगर उनको सुना नहीं जाता और इस प्रकार की घटनाएं भी रोगी की मौत के कारण बनती हैं।
चिकित्सा विभाग गली मोहल्ले में इलाज करने वालों को झोलाछाप डॉक्टर कह कर पकड़ता है और मुकदमे भी बनाता है लेकिन बड़े चिकित्सालयों में ऐसी कार्यवाही नहीं होती?
क्या बड़े चिकित्सालयों में काम करने वाले डॉक्टर चिकित्सालयों के मालिक डॉक्टर ये लाखों रुपए प्रतिदिन की कमाई करने का बैंक बैलेंस और धन संपदा मरते वक्त साथ ले जाएंगे?