पत्रकार और संगठन राजधानी से कस्बों तक
* करणीदानसिंह राजपूत *
पत्रकार और पत्रकार संगठन राजधानियों से कस्बों तक फैले हैं। राज्यों की राजधानी नहीं देश की राजधानी दिल्ली में भी एक से अधिक संगठन हैं। हर संगठन की नीतियां अलग अलग है और पत्रकारों तथा पत्रकार नेताओं के विचार भी अलग अलग हैं। एक संगठन में भी विचार मेल नहीं खाते।
* एक संगठन के या उसके नेता पत्रकार के साथ कुछ होता है तो दूसरे संगठन और पत्रकार शांत रहते हैं। दूर से देखते रहो की नीति अपनाते हैं।अनेक बार एक ही संगठन में हीरो बनने वाले पत्रकार का साथ एक दो देते हैं और अधिकांश देखते हैं और दूर बैठ कर समीक्षा भी करते हैं कि क्या हो रहा है और आगे क्या हो सकता है?
* कोई पत्रकार शहर स्थान की स्थिति के अनुसार कोई गंभीर मुद्दे उठाते हैं जिसमें कोई अधिकारी या नेता भ्रष्टाचार के प्रमाणों सहित टारगेट होता है तो जनहित देखने के बजाय अन्य पत्रकार उस नेता और अधिकारी के साथ चाय की चुस्कियां लेते हैं या जाम से जाम मिला कर खास बनते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है कि विभाग में उनकी ठेकेदारी के काम बिना रुकावट के चलते रहें। यह मजबूरी भी समझ सकते हैं। बडे़ शहरों में तो छद्म नामों से किसी के साथ मिल कर ठेके चलते हों तो पकड़ पाना मालुम कर पाना ही मुश्किल होता है।
इसे पत्रकारिता की कौनसी विधा कहा जाए? यह पत्रकारिता नहीं है लेकिन ऐसा हर जगह चल रहा है।
* पत्रकार संगठनों में वे पदाधिकारी बन गये जिनका कलम कैमरे और लेखन प्रकाशन प्रसारण से कोई वास्ता ही नहीं। ऐसे लोग प्रेस क्लबों में घुस गये और कोई उनको हटाना चाहे तो उनको घुसाए रखने वाले भी संगठन में मौजूद हैं जो कहते हैं कि संगठन में पड़े हैं तो आपका क्या ले रहे हैं? संगठन के रजिस्ट्रेशन के लिए एक निश्चित संख्या तक तो सदस्य बनाए रखने होते हैं इसलिए पत्रकार न होते हुए भी पत्रकार बनाए हुए साथ रखने की मजबूरी भी होती है। हालांकि संगठन बिना रजिस्ट्रेशन के चलाने पर कोई रोक नहीं है।
हालांकि ऐसे पदाधिकारियों की कार्यवाहियों या कभी कभी के लेखन से संगठन आलोचना का शिकार भी होता है।
लोगों में तो अब सही गलत कहने वाले ही नहीं रहे। सभी को सलाम कहो सभी से हाथ मिलाओ। किसी को भी गलत क्यों कहा जाए? जैसे पत्रकार वैसे ही लोग हो गये। एक बार पत्रकारों को कहा आपके साथ हैं और फिर गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग। कोई घटना हो तो बुलावे पर दो घंटों की हाजिरी दी जोरदार भाषण दिया और फिर गायब। कोई मानहानि का या अन्य मुकदमा हो जाए तो पत्रकार निजी रूप से भुगते या अदालतों में लड़े।
👍 आखिर पत्रकार किसे माना जाए और किसे न माना जाए? सरकारी स्तर पर कोई नियम होता है। अखबार या चैनल में कहीं तो उपस्थिति हो और अखबार चैनल सरकार से रजिस्टर्ड हो। इनके संपादक संवाददाता हों पूर्ण कालिक या अंशकालिक। इसके अलावा शौकिया संवाददाता जो काम व्यवसाय तो और हो साथ में कलम कैमरा कम्प्युटर चलाते हों और छपते हों प्रसारित होते हों लोग पढते हों देखते हों। लोग मानते भी हों।
दो तीन महीनों में कभी एक दो मैटर सोशल साईट ग्रुपों में डाला युट्युब पर डाला तो उसे लोग ही पत्रकार मीडियामेन नहीं मानते। पत्रकार है तो उसकी कलम कैमरा घटनाओं पर चलता रहना चाहिए। चाहे बनाई हुई घटनाओं पर नहीं चले। पत्रकारों और संगठनों के हालात नेताओं और राजनैतिक दलों से ज्यादा सोचनीय हो गये हैं। हर स्थान पर एक पत्रकार किसी संगठन का कुछ करता है तो दूसरे पत्रकार संगठन चुप रहते हैं दूर से देखते हैं। पत्रकार नेतागिरी से दूर रहे कहीं गड़बड़ी है तो जम कर लिखे और उच्च अधिकारियों एवं शासन प्रशासन तक हालात पहुंचाए। सीधा उलझे नहीं। लेकिन कभी ऐसा हो जाता है तो दूसरे संगठन पत्रकार भ्रष्टाचार और विरोधी के साथ गुपचुप दोस्त हो जाते हैं।
ऐसा हर जगह हो रहा है। बड़े नगरों महानगरों राजधानियों में तो विवाद अधिक हो रहे हैं।
पत्रकार माने न माने लेकिन इस सच्च को हरेक माने यह जरुरी नहीं है। सभी की अपनी अपनी मर्जी है। पहले अनेक अखबारों में कालम आता था "मानो या ना मानो"।
👍लेकिन पत्रकारिता के उत्थान विकास और मजबूती के लिए जरूरी है कि जो सच्च में पत्रकारिता करते हों वे ही संगठनों में सदस्य पदाधिकारी हों। जो पत्रकारिता नहीं कर रहे उनको अपने आप ही संगठनों से हट जाना चाहिए लेकिन वे तो अपने कामधंधों के बेरोकटोक चलते रहने के लिए छद्मवेश पत्रकार बने हैं और आगे भी बने रहेंगे और किसी अखबार का कार्ड भी रखे होंगे।
👍 पत्रकारों और पत्रकार संगठनों की शक्ति स्वयं पत्रकार ही क्षीण कर रहे हैं। इसलिए सरकारें पत्रकारों को अखबारों चैनलों को दबा रही है। जितने बड़े अखबार हैं वे सरकार के गलत कामों को जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार घपलों को विज्ञापन मिलने की मजबूरी में दबाते हैं या घटनाओं का रूप ही बदल देते हैं।
* एक कड़वा सच्च यह भी है कि अखबार फाईल कापियों में छपता है और वे पत्रकार भी हैं। सरकार विज्ञापन दे। लेकिन जब सरकार को मालुम हो रहा है तो विज्ञापन क्यों दे? आजकल विज्ञापन मिलने बंद जैसे हैं। जो असल में छप रहे हैं उनका हक फाईल कापियां छापने वाले मार रहे हैं। जिनके दफ्तर नहीं हैं। जो पत्रकारिता कर नहीं रहे।इस प्रकार के पत्रकारों को कौन हटाएगा?
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20 सितंबर 2024.
करणीदानसिंह राजपूत,
पत्रकार ( राजस्थान सरकार से अधिस्वीकृत)
सूरतगढ ( राजस्थान )
94143 81356.
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