मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

राजस्थानी साहित्यकार डा.आईदान सिंह भाटी की महानता पर फारूख आफरीदी का यह वृत्तांत.

(जन्म दिन 10 दिसंबर पर)

#बधाई_डॉ_आईदानसिंह_भाटी_साहब

आज हमारे परम मित्र राजस्थानी आधुनिक कविता के अप्रतिम हस्ताक्षर, आलोचक डॉ आईदान सिंह भाटी का आज जन्म दिन (10 दिसंबर 1952) है.बधाई और अनंत शुभकामनाएँ.(हाल ही जिन्हें बिहारी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है) 


#एक_अधूरे_लेख_की_कुछ_पंक्तियां

डॉ. आईदान सिंह भाटी से मेरा सत्तर के दशक से दोस्ताना रहा है जब वे पोस्टल विभाग में सेवारत थे और मैं दैनिक ‘जलतेदीप’ में समाचार सम्पादक होते हुए भी जोधपुर विश्वविद्यालय (अब जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय ) में हिंदी स्नातक और  स्नातकोत्तर  का विद्यार्थी था। ये वह ज़माना था स्टेशन रोड स्थित जब रेलवे इंस्टीट्यूट के बाहर मंगलसिंह बुकसेलर के यहाँ साहित्यकारों का जमघट लगता था ।यह बुक स्टाल एक मायने में साहित्यकारों का स्थायी प्लेटफॉर्म था । इसमें वरिष्ठ, युवा  साहित्यकार और पत्रकार साथ होते थे । आईदान सिंह भाटी, अक्षय गोजा, हबीब कैफ़ी,  नन्द भारद्वाज, तेजसिंह जोधा पारस अरोड़ा,  हसन जमाल, चैनसिंह परिहार, फारूक आफरीदी, जगमोहन सिंह परिहार, सुशील पुरोहित, सुशील व्यास, मीठेश निर्मोही, हरिदास व्यास, उषा माहेश्वरी,चंद्रशेखर अरोड़ा, योगेन्द्र दवे, शिव प्रेमी, यश गोयल आदि सभी थे। कुछ लोगों की साहित्यिक जमीन जड़ पकड़ चुकी थी तो कुछ अपनी जमीन तलाश रहे थे । गणपतिचन्द्र कोठारी,विजयदान देथा बिज्जी, मरुधर मृदुल, कोमल कोठारी, डॉ मदन डागा, डॉ सावित्री डागा, शीन काफ निजाम, राज जोधपुरी, हबीब कैफ़ी  बड़े नाम थे । बीकानेर से नन्द किशोर आचार्य और हरीश भादानी का भी  अक्सर जोधपुर आना-जाना बना रहता था । उन दिनों जोधपुर से प्रोफ़ेसर जोशी (डॉ ताराप्रकाश जोशी के बड़े भाई ) जोधपुर से हरी प्रकाश पारीक जी की प्रेस से राजस्थानी मासिक ‘हरावल’ पत्रिका निकलते थे जिसके संपादन से डॉ तेजसिंह जोधा और नन्द भारद्वाज भी जुड़े हुए थे । तेज सिंघजी की राजस्थानी कविताओं का तीखा तेवर  सबको प्रभावित करता था और वे नई जमीन की और नव जागरण की आधुनिक कवितायेँ थी । युवाकाल में उनकी कविताओं का जैसा असर था लगभग वैसा ही असर डॉ भाटी की कविताओं में दिखाई देने लगा और और उनकी खास पहचान बनने लगी ।उनके इस तेवर के करण ही शायद ‘परम्परा’ (राजस्थानी पत्रिका) के समर्थ संपादक और मान्य कवि  डॉ नारायण सिंह भाटी ने डॉ. आईदान सिंह को आधुनिक राजस्थानी कविता विशेषांक का संपादन करने के लिए कहा ।    

यह वह दौर था जब जोधपुर विश्वविद्यालय में अज्ञेय से लेकर प्रगतिशील और जनवादी  विचारकों  डॉ नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, डॉ विमल जैसे का बोलबाला था । साथ ही  डॉ डॉ रमासिंह, डॉ नित्यानंद शर्मा भी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अंग थे । ऐसे समय  जब युवाओं के मन में कुछ करने की तमन्ना प्रस्फुटित हो रही थी । जनवादी और प्रगतिशील विचारों को लेकर जोश था । जनवाद के प्रति एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई दे रहा था । डॉ आईदान सिंह उन उभरते हुए हुए युवाओं में से एक थे जो ये समझ रहे थे कि जनवाद से ही सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन लाया जा सकता है ।  जनवादी विचारधारा के मित्र इसी सोच के साथ तब साहित्यिक गोष्ठियों में वे अपना प्रबल पक्ष रखते थे । उनकी इस विचारधारा ने उस समय के सभी युवाओं को गहरे तक प्रभावित किया, उनमें से मैं भी एक था । तब तक प्रगतिशील लेखक संघ से अलग होकर शायद जनवादी लेखक संघ अस्तित्व में नहीं आया था।अखिल भारतीय साहित्य परिषद का तो कोई नामलेवा भी नहीं था लेकिन दक्षिणपंथी विचार के लोग अवश्य मौजूद थे । मैं ही नहीं मेरे साथ का युवा वर्ग भी  उन लोगों को पहचान रहा था । सामंतवाद के साए में पले-बढे आईदान भी उनमें से एक थे जो दक्षिणपंथी सोच को समाज के लिए खतरा मानते थे । उस समय प्रगतिशील विचारधारा के अध्येताओं के संपर्क में आने से युवा पीढ़ी को छद्म राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता, संकीर्णतावाद को गहराई से समझने का अवसर मिला और प्रगतिशीलता का जो बीजारोपण हुआ वह आगे चलकर सामाजिक सरोकारों के प्रति आस्था का सुदृढ़ आधार बना । 

यह वह समय था जब सांप्रदायिक संगठन अपनी जड़ें ज़माने के लिए कड़ी जद्दोजहद कर रहे थे । और ऐसे राजनीतिक संगठन कम ताकत होने के बावजूद अपने अस्तित्व के लिए सांप्रदायिक दंगे करवाने में भी नहीं  चूक रहे थे । युवा वर्ग यह सब अपनी नंगी आँखों से देख रहा था । यहाँ तक कि विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों में भी जातिवाद हावी था । ऐसे समय में प्रगतिशील और जनवादी विचार अपने प्रारंभिक दौर से गुजरते हुए अपनी जड़ें जमाने के लिए प्रयास कर रहा था । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का स्टूडेंट फैडरेशन और युवा कांग्रेस अपनी संक्षिप्त उपस्थिति दर्ज करा रहा था । समाजवादी सोच के विज्ञानं मोदी, सोहन मेहता के साथ दक्षिणपंथी सोच के युवा भी थे । उस समय भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन नया नया ही अस्तित्व में आया था जिसकी युवाओं में कोई ख़ास पहचान नहीं थी । यह तो अशोक गहलोत ही थे जिसने सत्तर के दशक में इस संगठन को युवाओं के बीच एक नई पहचान दिलाई और जातिवाद एवं सामन्तवाद के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत की । प्रारम्भ में भले ही उन्हें इसमें आशातीत सफलता नहीं मिली हो, लेकिन जिस प्रगतिशील विचार और आदर्श आचार संहिता के साथ भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (एनएसयूआई) ने धमाकेदार एंट्री ली वह आज भी याद की जाती है । 

बहरहाल डॉ. भाटी ने जोधपुर विश्वविद्यालय से हिंदी विभाग से स्नातकोत्तर करने के बाद पीएचडी कर ली और जल्दी ही पोस्टल विभाग से विदाई लेकर  हिंदी के कालेज व्याख्याता के रूप में अपनी नई पारी की शुरुआत कर दी थी । वर्ष  उन्नीस सौ अस्सी के प्रारंभ में अच्छी खासी पत्रकारिता छोड़कर में राज्य जनसंपर्क सेवा में चला गया । इस प्रकार कुछ वर्षों तक के लिए डॉ भाटी से मुलाकातें लम्बी हो गयी । बरसों पहले जोधपुर से भाई मीठेश निर्मोही ने राजस्थानी पत्रिका ‘आगूंच’ प्रकाशित  करना प्रारंभ किया । पत्रिका के पहले ही अंक में डॉ आईदान सिंह भाटी और मेरी राजस्थानी कविताएं साथ-साथ छपी । मीठेश जी ने मेरा नाम पत्रिका के सहायक संपादक के रूप में भी सम्मिलित किया । इससे पहले हम तीन जनों वरिष्ठ कथाकार हसन जमाल ,फारूक आफरीदी और डॉ यश गोयल ने हिंदी कथा साहित्य की एक पत्रिका ‘शेष’ निकाली जिसे हसन जमाल ने मेरे और डॉ  गोयल के जोधपुर छोड़ने पर नागरी लिपि में उर्दू साहित्य  की पत्रिका के रूप में बदल दिया जो हाल ही तक निकलती रही और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब शोहरत हासिल की । हसन जी ने अपने धन,परिश्रम और साधना से पत्रिका को जो ऊँचाइयाँ  प्रदान की उससे साहित्य समाज कभी उऋण नहीं हो सकता ।  

उम्र में मुझ से 14 दिन (10 दिसंबर 1952) बड़े डॉ आईदान सिंहजी अनुभव में भी मुझसे कई गुना बड़े हैं । आज वे आधुनिक राजस्थानी कविता के बड़े हस्ताक्षरों में से एक हैं। उन्होंने उच्च कोटि के अनुवाद किये हैं तो प्रौढ़ों के लिए भी अनमोल साहित्य रचा है बल्कि उनकी पहचान एक लब्ध प्रतिशत रिसोर्स पर्सन के रूप में है । राजस्थानी भाषा के एक सबल आलोचक होने के साथ हिन्ढी आलोचना और साहित्य में भी उनका उतना ही अधिकार है 

राजस्थानी कविता संग्रह  ‘हंसतोड़ा होठा रौ सांच’, रात कसूंबल’,’आँख हीयै रा हरियल सपना’ और ‘खोल पंख खोल चिडकली’ उनकी अनमोल कृतियाँ हैं । इन कविताओं  में राजस्थानी जनजीवन की वे अद्भुत छवियाँ हैं जिनमें जनमन के दर्द, उनकी आशाएं निराशाएं, हताशा, उनकी जीवटता और खुद्दारी मुंह से बोलती है । इनमें मरुभूमि  के तमाम वे रंग मौजूद हैं, जो इन्द्रधनुषी रंगों से भी विरले हैं ।  डॉ. भाटी इन रंगों में जीए हैं, इन रंगों से सदा सराबोर रहे हैं, इनकी खुशबू से सुवासित रहे हैं।इन कृतियों में जो भी कविताएं और गीत हैं वे किसी जनमन के गीत है , बल्कि इन्हें मरुभूमि के आधुनिक लोकजीवन के  गीत कहना उचित होगा। ये रचनाएं  डॉ भाटी को अपने समकालीन कवियों से अलग खड़ा करती है । 

जो लोग जोधपुर  के जनकवि  डॉ नारायणसिंह भाटी और बीकानेर के जनवादी कवि हरीश भादानी के कंठों से उनके गीत और कविता का रसास्वादन कर चुके हैं उन्हें डॉ. आईदान को सुनते हुए यह एहसास हो सकता है कि वे उस परम्परा के समृद्ध कवि हैं । डॉ नारायण सिंह भाटी डिंगल और आधुनिक राजस्थानी कविता के सेतु माने जाते हैं । सौभाग्य से डॉ आईदान ने हाल ही उनकी कविताओं का संपादन किया, जो 2018 में गिरधर प्रकाशन जोधपुर से प्रकाशित हुआ ।  

सामंतवादी  विचारों के कट्टर विरोधी और जनवाद में अटूट आस्था रखने वाले  डॉ. आईदान सिंह भाटी मनुष्य की मनुष्य से अधीनता को सिरे से ख़ारिज करते हैं । वे अपने बचपन के किस्से सुनाते हुए कहते हैं कि मनुष्य मात्र  को सम्मान देना उन्होंने अपने पुरखों से सीखा है ।उन्होंने गैर बराबरी और गैर बिरादरी के लोगों की इज्जत करना अपने परिवार से सीखा है।बचपन में एक बार किसी गैर समाज के अपने गाँव के बुजुर्ग के प्रति आदरसूचक व्यवहार ना करने की सजा के रूप में अपने पिता से चांटा खाने के बाद वे ऐसे संभले कि उसे हमेशा याद रखते हैं। मुझे लगता है डॉ भाटी को जनवाद की पहली सीख अपने पिता से मिली। 

डॉ भाटी  जैसे मित्र के साथ 1993 से 1995 तक  बाड़मेर में निभाए गए तीन साल मेरे जीवन की अमूल्य थाती है। डॉ भाटी के संग इतनी निकटता से रहने के कारण मेरी साहित्यिक दृष्टि न केवल विकसित हुई बल्कि मेरी एक आधार भूमि भी तैयार हुई।  बाड़मेर में साहित्यिक जमीन तैयार करने में उन्होंने जो भूमिका निभाई है वह अविस्मरनीय और अतुलनीय  है। उनके समय जिला प्रशासन द्वारा  बाड़मेर समारोह की शुरुआत हुई। ऐसे समारोह दृष्टि सम्पन्नता के अभाव में अक्सर नीरस या भौंडे रूप में बदल जाते हैं किंतु डॉ भाटी ने ऐसा नहीं होने दिया और गोपाल दास नीरज, हरीश भादानी, मोहम्मद सद्दीक और समर्थ गीतकारों को बुलाकर सरकारी आयोजनों को नई गरिमा दिलवाई। उन्होंने  देश के मूर्धन्य विद्वान साहित्यकारों विभूतिनारायण राय,कृष्ण कल्पित,  से.रा. यात्री,  शिव नारायण, कुशवाहा, शैलेन्द्र चौहान, और कई नामवर विभूतियों  से बाड़मेर वासियों को परिचित कराया।  उन्होंने बाड़मेर और जैसलमेर में सृजनात्मक संसार की संरचना की और उसे निरंतरता प्रदान की। बाड़मेर में उच्च कोटि का साहित्यिक माहौल बनाने में उनका अनुपम योगदान है. मैं और आकाशवाणी दूरदर्शन के कृष्ण कल्पित इसके साक्षी रहे हैं । सूचनाकेन्द्र को साहित्यिक सांस्कृतिक अनुष्ठान का केंद्र बनाने में उनकी भूमिका अतुलनीय है। उन्होंने बाड़मेर में सुरुचिपूर्ण थियेटर को पनपाने में भी अपना अमूल्य योगदान दिया। शाम को जब वे कालेज से और मैं और कल्पित अपने अपने दफ्तर से लौटते तो मेरा या उनका घर संहित्यिक सदन में बदल जाया करता था और रात रात भर गोष्ठियां चलती थी। मेरे तीन साल कब बीत गए, कभी पता ही नहीं चला।अपने ट्रांसफर पर जयपुर लौटते हुए मुझे बाड़मेर छोड़ने का उतना  गम नहीं था जितना डॉ भाटी जैसे मित्र से बिछुड़ने का था। डॉ.भाटी का अनुभव संसार बहुत बड़ा है और इसे बांटकर वे इसे और बड़ा बना देने का हुनर रखते हैं। वे धाराप्रवाह बोलते हैं तो लगता हैं नदी कलकल बाह रही है। ज्ञान का अथाह सागर उनके भीतर समाया हुआ प्रतीत होता है। वे  संस्कृति,समाज और परंपरा से गहरे जुड़े हुए  होते भी आधुनिक सोच के सशक्त पहरुए हैं। राजस्थानी भाषा के एक उद्भट विद्वान भाटी जी से मिलने का अर्थ स्वयं को समृद्ध करने जैसा है। इस प्रज्ञावान से मित्रता  मैं अपना सौभाग्य मानता हूं। वे उदासियों को भी हर लेते हैं और संकट के समय संकटमोचक बनकर चट्टान की तरह खड़े रहते हैं। मैने उन्हें ऐसे पलों में भी मित्रों के साथ खड़ा देखा है जब लोग अक्सर मित्र धर्म को छोड़ अपनी अस्मिता की लाज बचने को परम धर्म मानने लगते हैं ।


वैसे तो डॉ भाटी ने रचनाधर्मिता में कई कीर्तिमान स्थापित किये हसीन लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी  की जीवनी ' मेरे सत्य के प्रयोग ' का राजस्थानी भाषा में अनुवाद कर  उन्होंने राजस्थानी समाज को  एक अमूल्य सम्पदा सौंपी है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी और स्पष्टवादी  डॉ भाटी का मित्र होने का मुझे फख्र है। उनकी अनेक रचनाएं स्पष्टवादिता की साक्षी और लोगों  के चेहरे पर लगे मुखोटों को उखाड़ फेंकती है ।


( माननीय फारूख आफरीदी के फेसबुक से यह लेख लेकर और मेरे  ब्लॉग www.karnipressindia.com पर लगाकर और मेरे फेसबुक पर लिंक देकर मैं बहुत खुशी अनुभव कर रहा हूं। असीमित खुशी. करणीदानसिंह राजपूत, पत्रकार,

सूरतगढ़.

94143 81356.)

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