सूरतगढ़ तहसील में आकाल में पशुआहार खाया:1987-88 की भयानक हालात.
* करणीदानसिंह राजपूत *
राजस्थान में छप्पनिये आकाल की चर्चा कभी खत्म नहीं होती। लोगों को खेजड़ी के छोडे तने के छिलके तक खाने पड़े थे। इससे मिलती-जुलती हालत ही 1987- 88 के समय सूरतगढ़ तहसील के अंदर भी लोगों की हुई जिसमें आकाल की बेबसी में अकाल राहत कार्य का भुगतान समय पर नहीं मिलने से और अनाज कम मिलने से पशु आहार आटे में मिलाकर खाना पड़ा था। बहुत बड़ी बेबसी थी लेकिन लोग इस भयानक पीड़ा में भी अपना मुंह खोल नहीं रहे थे। चाहे गरीब हो चाहे अमीर हो सबको अपनी इज्जत प्यारी होती है। लोग कहेंगे पशु आहार खा रहे हैं। लेकिन कोई न कोई तो ऐसे हालात में मुंह खोल ही देते हैं। बखान कर ही देते हैं।
सूरतगढ़ तहसील के गांवों में अकाल के दिनों में वास्तविक स्थिति अपनी आंखों से देखने के लिए और लोगों से बात करके मालूम करता रहता था। उसमें बहुत सी बातें सामने आती थी। लोग बहुत ही गुपचुप रूप से बताते थे कि हालत बहुत बुरी है।
अकाल के संकट काल में सूरतगढ़ तहसील के बछरारा गांव में मुझे बहुत ही दयनीय हालात का मालूम पड़ा। लोग एकत्रित हुए तब अकाल के बारे में बताने लगे लेकिन एक व्यक्ति ने मुझे कहा कि आप अलग होवो तब मैं कुछ बताऊंगा। लोगों के बीच से कुछ दूर जाने के बाद में जो मालुम पड़ा वह बहुत ही चिंता जनक था।
सहीराम ने बताया कि जो अनाज मिलता है वह बहुत कम होता है। प्रति व्यक्ति केवल 5 किलो इस हालत में बड़ी मुश्किल हो रही है।अकाल राहत का भुगतान मजदूरी भी समय पर नहीं मिलती लोगों को आटे में पशु आहार मिला कर पेट भरना पड़ता है। उसने बताया कि डेयरी से पशु आहार मिलता है। पशु आहार को कूट कर चूरा बनाते हैं बाद में अनाज में मिलाकर चक्की में पीस लेते हैं। बड़ी बुरी हालत है। समय पर पैसा नहीं मिलता। प्रशासन निकृष्ट है।समय पर मस्टररोल नहीं भेजे जाते। लोगों ने भी इस बात की पुष्टि की। सही है जब अनाज नहीं मिले तो आखिर लोग पशु आहार क्यों नहीं खाए? यह भी बताया गया था कि सड़कों पर डालने वाला धांधड़ा धरती में पांच छह फुट नीचे दबा होता है। ऊपर से इतनी रेत हटाने के बाद धांधड़ा खोदते हैं। केवल धांधड़ा को ही काम में गिना जाता है। रेत का माप शामिल नहीं होता।यह श्रम बेकार चला जाता है।
मेरी यह रिपोर्ट 24 फरवरी 1988 को लिखी गई और राजस्थान पत्रिका बीकानेर संस्करण में 25 फरवरी 1988 को प्रकाशित हुई थी। उस समय राजस्थान पत्रिका बीकानेर में छपने लगी थी।
वह रिपोर्ट कटिंग मैं आप सभी के सामने पेश कर रहा हूं।
उस समय जनता पार्टी के विधायक हंसराज मिड्ढा थे। अकाल राहत कार्यों में और भयानक गर्मी के दिनों में जब उनका भ्रमण होता था तब लू के थपेड़ों के बीच मैं भी उनके साथ गांव दर गांव जीप में घूमा करता था। जीप में सवार होकर हम लोगों को मिलने असलियत पता करने लोगों के दुख और दर्द मालूम करने के लिए गांवों में जाते थे। हंसराज जी मिड्ढा आज संसार में नहीं है लेकिन जब जब मैंने उन्हें टिब्बा क्षेत्रों में घूमने का कहा देखने का कहा तो उन्होंने कभी इनकार नहीं किया। हम लोग निकल पड़ते थे। बहुत शिकायतें मिलती। गांवों में पानी नहीं मिलता था। डीजल इंजन बंद हो जाता था तो कई गांव पानी से वंचित हो जाते थे। क ई गांवों में पानी देईदासपुरा से पहुंचाया जाता था।
टिब्बा क्षेत्र की अनेक पीड़ाएं आज भी कायम है। आज से 35 साल पहले कि मैंने यह पीड़ा प्रकाशित करके प्रशासन तक पहुंचाई थी।
हमें लोग पीड़ाएं बताते थे। जनता पार्टी के श्री सोहनलाल रांका,श्याम महर्षि और लोकदल (ब) के गुमानाराम पूनिया एडवोकेट ऐसे व्यक्ति थे जिनके साथ में अनेक बातें मुझे मालूम पड़ती थी। गुमानाराम का गांव देईदासपुरा है और वे सूरतगढ़ में रहते हैं।
उस काल की रिपोर्ट पाठकों के बीच में रख रहा हूं। राजस्थान पत्रिका में 25 फरवरी 1988 को छपी रिपोर्ट आपके सामने हैं। टिब्बा क्षेत्र की हालत आज भी बहुत पिछड़ी हुई है। पेयजल शिक्षा चिकित्सा और आवागमन के साधन सिंचाई पानी की सुविधा बहुत कम होने से अनेक गांव आज भी पीड़ित हैं। आज समय बहुत बदल चुका है। सरकार के पास में बहुत साधन है ऐसे में टिब्बा क्षेत्र की समस्याओं का समाधान किया जाना बहुत जरूरी है।०0०
19 नवंबर 2022.
करणीदानसिंह राजपूत,
स्वतंत्र पत्रकार,
( राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय से अधिस्वीकृत)
सूरतगढ़ ( राजस्थान)
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