मंगलवार, 3 नवंबर 2020

मायड़ भाषा राजस्थानी की मान्यता के लिए समर्पित हैं सूरतगढ़ के मनोज स्वामी

 





* राजेन्द्र सारस्वत *

भले ही आज समय में परिवर्तन आ गया है मिलने-मिलाने की परम्परा समाप्त सी हो गई है. दिलों में मेल- मिलाप की जगह ही शेष नहीं है. ऐसे में यदि कोई अपना प्रियजन आकर मिलता है. उस खुशी का क्या कहीं मोल लगाया जा सकता है. माना कि कोरोना ने सामाजिक सरोकारों को ध्वस्त करके रख दिया है. इसके बावजूद यदि किसी से प्रेम सच्चा हो तो लोग मिलने मिलाने का मौका हाथ से नहीं जाने देते. कुछ इसी प्रकार का आज एक अवसर मुझे मिला. मैं आज अपने जिले के सूरतगढ़ शहर में निजी कार्य से गया था. मैंने मनोज स्वामी जी को रिंग की. उन्हें बताया आपके शहर में आया हुआ हूं. मिलने की चाह है. वे अत्यंत विनम्रता से बोले-"आप कहां तकलीफ उठाएंगे. मुझे बताएं आप कहां हैं. मैं आता हूं." और आश्चर्यजनक रूप से 10 मिनिट के भीतर अपने बाईक से वे मेरे बताए एड्रेस पर उपस्थित थे. आपको बता दूँ. लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, कवि एवं  समाजसेवी मनोज स्वामी से आज मेरी साक्षात मुलाकात करीब 20 वर्ष पश्चात हुई थी. वर्षों बाद के मिलन की अनुभूति को शब्द दे पाना आसान चीज़ नहीं है. घर परिवार, देश- काल, सामाजिकता और  सियासत पर हमारी खुलकर चर्चा हुई. मगर मनोज स्वामी घूमफिर कर मायड़ भाषा राजस्थानी के मान्यता के मुद्दे पर आ गए. मैंने महसूस किया कि मायड़ भाषा की मान्यता को लेकर इस सरल, सहज और सीधे-सादे इन्सान के मन में कितनी पीड़ा है. मुझे लगा वे बता तो मुंह से रहे हैं. परंतु उद्गार उनके हृदय से अभिव्यक्त हो रहे थे. वे कहने लगे. सत्ता, सियासत और नौकरशाही की तिकड़ी हमारी भाषा की मान्यता में फच्चर अड़ा रही है. और परिणाम हमें भुगतना पड़ रहा है. हम तो नुक्सान उठा ही रहें हैं. हमारी आने वाली पीढियों को भी इसके नतीजे भुगतने होंगे. यदि हम भविष्य के बारे में नहीं सोचते हैं. तो निश्चित रूप से हमारा कोई भविष्य ही नहीं है.. यह बात मैंने मन ही मन में सोची. उनसे कह नहीं पाया.

मैं आपकी जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि मनोज स्वामी अखिल भारतीय राजस्थानी मान्यता समिति के राजस्थान प्रांत के  महासचिव हैं. जिस भांति पवनसुत हनुमान जी के हदय में श्रीराम बसे थे. हमारे मनोज स्वामी जी के शरीर के रोम रोम में मायड़ भाषा राजस्थानी बसती है. उठते- बैठते, खाते- पीते, सोते- जागते राजस्थानी भाषा की मान्यता की ही बात करते हैं. वे कहते हैं राजस्थानी भाषा की मान्यता का सवाल हमारे जीवन मरण से जुड़ा है. मनोज स्वामी सूरतगढ़ टाईम्स नाम से बहुत पहले से एक साप्ताहिक समाचार पत्र निकालते हैं. लेकिन उनके वक्तव्य से अहसास हो रहा था कि अब साप्ताहिक तो क्या दैनिक अखबारों के समक्ष संकट  वर्तमान है. क्षेत्रिय पत्रकारों के सन्मुख रोजीरोटी का सवाल आ उठ खड़ा हुआ है. वे अपने  अखबार के जरिये भी राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने की ही सिफारिश करते हैं. मुझे मनोज स्वामी ने यह जानकारी देकर चौंका दिया कि दुनिया के समक्ष हमने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. वे बता रहे थे कि सूरतगढ़ से पहली बार राजस्थानी भाषा में सोसल मिडिया के माध्यम से राजस्थानी बोली में रामलीला का प्रसारण अभी अभी किया गया. इसकी बहुत सराहना हुई. उन्होंने बताया कि इस रामलीला के लिए हमारी टीम ने खून- पसीना एक कर दिया. वे समस्त टीम के प्रति आभार भी व्यक्त करते हैं.


लंदन की एक संस्था ने भी इस राजस्थानी रामलीला को ओन एयर किया. दुनिया भर में इस रामलीला का प्रसारण अपने आप में बेमिसाल घटना है. दुनिया ने हमारी संस्कृति और लोक कला को साक्षात देखा.

मनोज स्वामी से मिलकर लगा आज जैसे संत समागम ही हो गया है. उनके विचारों से लगा कि उन्होंने मानो मायड़ भाषा की मान्यता को जैसे जीवन का लक्ष्य ही बना लिया है. किसी विद्वान का कथन है कि--"आप क्या पाने की इच्छा रखते हैं. एक लक्ष्य निर्धारित करलें. उसी को अपना जीवन कर्म समझिये. हर क्षण उसी का चिंतन कीजिये. उसी लक्ष्य का स्वप्न देखिये.उस लक्ष्य के सहारे जीवित रहिये. उसी लक्ष्य के प्रति ओतप्रोत रहिये. जब तक अपना सोचा पूरा न करलो. न तो चैन की नींद लो और न ही किसी अन्य विचार को अपने आसपास ही फटकने दो !" मैं सोच रहा था कि मनोज स्वामी ठीक इसी उक्ति को चरितार्थ करते हुए से इन्सान हैं. हमने एक- एक प्याली चाय पी. और फिर जल्दी ही मुलाकात के वायदे के पश्चात वे विदा हुए. 

उनके जाने के बाद मैं यह विचार कर रहा था कि ईश्वर ने कैसे कैसे लोगों की रचना की है. दुनिया ऐसे लोगों से भरी पड़ी है कि जो सिर्फ अपने प्रति ही सोचा करते हैं. मनोज स्वामी जैसे लोग समाज में गिनती के ही हुआ करते हैं जो केवल स्वयं का ही नहीं औरों के भी हितों का भी ख्याल करते हैं।....00

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राजेंद्र सारस्वत.

स्वतंत्र पत्रकार( राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय से अधिस्वीकृत)

श्री गंगानगर.

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