बुधवार, 14 सितंबर 2016

अखबारों का फर्जी प्रकाशन: पीआरओ की झूठी रिपोर्ट से चलती है अखबारी फर्जी रेल:निदेशालय डीएवीपी होते गुमराह:




अखबार साप्ता.पाक्षिक 50 कॉपी, दैनिक अखबार 1000 प्रकाशन रोज रिकार्ड 20-25-35 हजार:
- करणीदानसिंह राजपूत-
भारत की केन्द्र व राजस्थान की सरकार ने अखबारों के वर्ष भर में मिलने वाले विज्ञापन पहले से काफी कम कर दिए हैं और जिसका एक कारण तो यही है कि लगातार शिकायतें हैं कि अखबार फर्जीवाड़ा कर रहे हैं तथा असल में जितना रिकार्ड तैयार करते हैं उतने छापे नहीं जाते तथा कई तो फाइलों में ही रहते हैं। अखबार जितनी प्रतियां रिकार्ड छपना बताया जाता है उतना तो कागज ही नहीं मिल पाता। सब हवा हवा में हो होता है।

अनेक साप्ताहिक व पाक्षिक एक दो हजार छापे जाते हैं लेकिन संख्या तीन से पांच सात हजर तक का रिकार्ड फर्जी तैयार किया जाता है ताकि सरकारी विज्ञापन के दर अधिक मिल सके। अनेक साप्ताहिक व पाक्षिक अखबार केवल विज्ञापन मिलता है तब ही छपते हैं तथा कुछ प्रतियां इधर उधर वितरित कर दी जाती है और कुछ उन सरकारी विभागों में जहां पर भेजा जाना अनिवार्य है वहां पर भेज दी जाती है।
संपादक मालिक आराम से कहते हैं कि फाइल की 50 प्रतियां ही छपवाई। ऐसेे अखबारों की प्रतियों की और प्रेस पर जाकर छपते हुए पाने की रिपोर्ट पीआरओ देता है कि सही पाई गई। पीआरओ की रिपोर्ट पर विज्ञापन की दर निर्धारित होती है। आगे निदेशालय में कोई जाँच वांच नहीं।
दैनिक अखबार की रिपोर्ट में तो बहुत कुछ जाँचना होता है। पीआरओ प्रेस पर जाकर प्रतियां सही छपी होने की रिपोर्ट तो दे ही देता है लेकिन कागज के बिलों की सही तस्दीक करने में भी डरता नहीं।
कागज और मुद्रण के बिलों का घोटाला समझना जरूरी है।
प्रेस वाला एक दो हजार प्रतियां छापता है,उतना बिल तो दे सकता है लेकिन प्रतियां दस हजार से ऊपर का रिकार्ड तैयार हो तब प्रेस वाला बिल नहीं  देता।
अखबार का मालिक प्रेस का बिल कहीं से छपवाता है और उसमें खुद ही सारे आँकड़े भरता है। इसी तरह से कागज कंपनी का बिल भी कहीं से छपवाया जाता है और उसमें फर्जी खरीद बिल रकम आदि भरे जाते हैं। जिस कंपनी का बिल बनाया जाता है उसको मालूम ही नहीं होता कि उसके नाम से कहीं फर्जीवाड़ा हो रहा है। पीआरओ इन बिलों को जाँचना और सही होने की रिपोर्ट तक दे देता है। पीआरओ यह नहीं देखता कि लाखों रूपए का कागज खरीद दिखलाया है उसके आदेश कब कब हुए? उसका भुगतान कब कब चैक से,डिमांड ड्राफ्ट से या ऑन लाइन हुआ? कागज खरीदा गया है तब उसका भुगतान भी हुआ होगा? लाखों रूपए अखबार की बही में मौजूद होंगे तब ही पेमेंंट दिया जाता होगा? प्रतियां फर्जी दिखाई गई यहां तक तो चल गया लेकिन कागज के बिल तो फर्जी। कागज खरीदा गया तो फर्जीवाड़ा ट्रक नम्बरों का भी जिनसे कागज आना बतलाया गया।
कोई बिक्रीकर कोई आयकर भी होता होगा।अखबार की हर रात तीस पैंतीस हजार प्रतियां छपी तो उनको बंडल बनाने वाले दूर दूर तक पहुंचाने वाले कर्मचारी भी होंगे। आगे वितरक भी होंगे। अब वितरकों की फर्जी सूची तैयार। लेकिन वितरक के पास प्रतिदिन अखबार की प्रतियां पहुंची कैसे? उसके द्वारा भी कमीशन काट कर रकम जमा करवाई गई होगी? रकम होती नहीं और प्रतिदिन हजारों का लेनदेन तथा साल में कई कई लाख का टर्नओवर दिखला दिया जाता है। आश्चर्य है कि बिना किसी रोकड़ को देखे चार्टडेड एकांऊंटेंट भी अपनी ओर से प्रमाण पत्र जारी कर देता हे। उसका भी हिसाब। मतलब सब झूठ और सरकार के साथ षडय़ंत्र धोखा देते हुए रिकार्ड की कूट रचना। भारतीय दंड संहिता की धाराओं के हिसाब से दस साल की कड़ी कैद।
सरकार के साथ अखबार वाला जो धोखाधड़ी करे कूट रचना वाला रिकार्ड तैयार करे। उसकी सजा वह भुगतेगा लेकिन पीआरओ उस कूट रचना में शामिल क्यों होता है? पीआरओ को अपने घर बार की चिंता नहीं और अखबार वाले की दोस्ती की चिंता होती है कि उसको सरकारी विज्ञापन मिल जाऐंगे। पीआरओ को वेतन सरकार का और सरकारी नौकरी कहीं मिलती नहीं उसकी परवाह नहीं। अगर कार्यवाही हो तो क्या अखबार वाला बचा लेगा? वह नहीं बचा पाएगा? नौकरी जाएगी तथा पेंशन आदि जाएगी वह तथा अपने बीवी बच्चों का क्या होगा? उसको अपनेे बच्चों के कैरियर की जरा भी चिंता नहीं। पीआरओ को इतनी समझ तो होती है कि वह सरकार के साथ धोखा कर रहा है। मेरा कथन केवल इतना ही है कि पीआरओ को अभी भी अक्ल आएगी या नहीं या वे फर्जी को सही बतला कर रिपोर्ट देते रहेंगे। जिस नशे में कई पीआरओ ऐसी झूठी रिपोर्टें देते हैं अगर जाँच हुई तो वह नशा तो एक पल में गायब हो जाएगा।
अगर जाँच हो तो एक दिन में ही दैनिक मालिक के पसीने आ जाऐंगे कि तीस पैंतीस हजार कैसे छापी जाएगी और आजकल आठ पेज अनिवार्य। सच्च तो यह होता है कि उतना कागज ही नहीं होता। दैनिक के पास गोदाम भी होगा और उसमें कागज भी दस पन्द्रह दिनों का स्टॉक होता होगा? 

  झूठ की इमारत को कितने दिन तक खड़े रखा जा सकता है,पहले ऐसी शिकायतें निदेशालय और मंत्रालयों में होती थी लेकिन अब ऐसे प्रकरण पुलिस थानों में दर्ज होने लग गए हैं। अखबार वाला चाहे खास मित्र हो पीआरओ को सावधान हो जाना चाहिए कि नौकरी सरकारी और ऊंची तनख्वाह कोई देने वाला नहीं है।
पिछले कुछ सालों से यह आवाज उठने लगी है कि पत्रकारिता को दुकानदार व्यवसायी लोग चलाने लगे हैं, तो फिर ऐसे दुकानदारों को जो अखबार छापते तक नहीं हैं उनको बाहर किया जाना जरूरी है।

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