रविवार, 10 जनवरी 2016

तुम रूप की डली सांवली मनमोहिनी:कविता




तुम रूप की डली
सांवली मनमोहिनी देह
मद बिखरता यौवन
जब पहली बार देखा।
नजरें छुपा छुपा कर
दीदार किया करता
कोई देख न ले
बच कर भी रहता।
तुम्हारी पायल के घुंघरू
दिल में हलचल मचाते
जब निकलती आगे से
बस कुछ बाकी न रहता।
तुम मुस्कराती मंद मंद
चंदा तारों से खेलता
छू लूं देह कैसी है
दिल मचलता रहता।
तुम्हारे हुस्न के चर्चे
सुन सुन मैं खुश होता
हर चर्चा को चुपके से
दिल में संजो लेता।
तुम्हें अन्दाजा तो होगा
कोई हद से ज्यादा
तुमको चाहता है
ऐसी नजरें छुपती नहीं।
एक बात कहूं दिल से
तुम रूप की डली हो
कोई नहीं दूजी तुमसी।
समंदर का तूफान और
जवानी का उफान
इनसे बचना मुश्किल

जमाना यह कहता है।
यह सच्च मैं भोग रहा हूं
तुम्हारी मीठी बातों में
मैं चिपका हूं कब से
कितना रस है मधु जैसा।

 - करणीदानसिंह राजपूत,
विजयश्री करणी भवन,
मिनी मार्केट,
सूर्याेदय नगरी,सूरतगढ़।
94143 81356.
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