शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

मेरा परींदा मेरी चिडिय़ा -- कविता




धुंधलाती रोशनी बिखेरता
अस्तांचल में जाता सूरज हर रोज
तुम्हारा छत पर जाकर
चुग्गा बिखेरना हर रोज।
चिडिय़ां कबूतर कमेडिय़ों को
निहारती तुम्हारी आँखे हर रोज
छत के किनारे पर बनी
चौकी पर बैठी तुम हर रोज।
कभी तुम चिडिय़ों को निहारती
कभी ध्यान में कबूतरों की गटर गूं
कभी कमेडिय़ों की घूं घूं पर
नजर उठाती तुम हर रोज।



तुम्हारा यह चुग्गा डालना हर रोज
सूरज की अस्तांचल लाली में
लाल होता दमकता तुम्हारा चेहरा
संपूर्ण लाली में नहा जाती हो हर रोज।
परींदे आते एक एक चुगते दाने
और उड़ जाते एकदम से सब
तुम निहारती ओझल होने तक
छत से उतरती सपना लिए हर रोज।
मैंने सालों बाद तुम्हें देखा
चुग्गा बिखेरते
कितनी खोई तन्मयता में
गुनगुना रही थी कोई गीत।
तुम्हारा चेहरा बता रहा था
मन के भाव खुशियां समाये
मैं इतना समीप था तुम्हारे
कि छू सकूं चुग्गे का कटोरा
अहसास करा दूं अपनी उपस्थिति
लेकिन तुम खोई थी परींदों में।
यह ध्यान ही तुम्हारा है शक्तिदाता
तुम नहीं थकी और न थकोगी
चुग्गा खिलाते परींदों को हर रोज।
मैं साथ हूं तुम्हारे हर रोज
साढिय़ां चढ़ती हो तब पीछे
सीढिय़ां उतरती हो तब आगे
मैं चलता हूं साथ हर रोज
क्यों कि मैं समय हूं
जो तुम्हें गति देता हूं हर रोज।
कितने सालों से चुग्गा खिला रही तुम
मौन व्रत चेहरा लिए हर रोज
आओ मैं सिखलाता हूं बोलो
आओ री चिडिय़ों खाओ री चिडिय़ों
आती रहना रोज आती रहना रोज।



पंखेरू आते चुग्गा खाते और उड़ जाते
तुम्हारी आँखें उनमें कुछ खोजती
आते जाते और चुग्गा खाते
हर पंखेरू चिडिय़ा तक को निहारती।
मैं हर रोज देखता तुम्हारे हाव भाव
और एक दिन पूछ लिया तुमसे
तुमने जवाब दिया दर्द भरा
मेरा परींदा और मेरी चिडिय़ा
ना जाने कहां उड़ गए हैं।
मैं इंतजार में हूं कभी तो आयेंगे
मेरा परींदा मेरी चिडिय़ा।
तुम्हारा विश्वास साल दर साल
दृढ़ और दृढ़ होता रहा है
एक परींदे और एक चिडिय़ा का इंतजार।
तुम खिला रही हो चुग्गा सालों से
ये सैंकड़ों परींदे और प्यारी सी चिडिय़ां
तुम्हारी ही हैं यह मानो
और चुग्गा खिलाती रहो रोज।
--


करणीदानसिंह राजपूत
स्वतंत्र पत्रकार,
सूरतगढ़ 
94143 81356

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